महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 122 श्लोक 21-42

द्वाविंशशत्‍यधिकशततम(122) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वाविंशशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद


जैसे कुत्ते मांस के टूकडे के लिये आपस में छीना-झपटी और नोच-खसोट करते हैं, उसी तरह मनुष्‍य भी परस्‍पर लूट-पाट करने लगे। बलवान् पुरुष दुर्बलों की हत्‍या करने लगे। सर्वत्र उच्‍छृंखलता फैल गयी। ऐसी अवस्‍था हो जाने पर पितामह ब्रहा ने सनातन भगवान् विष्‍णु का पूजन करके वरदायक देवता महादेव जी से कहा-शंकर! इस परिस्थिति में आपको कृपा करनी चाहिये। जिस प्रकार संसार में वर्णसंकरता न फैले, वह उपाय आप करें। तब शूल नामक श्रेष्‍ठ शस्‍त्र धारण करने वाले सुरश्रेष्‍ठ महादेव जी ने देर तक विचार करके स्‍वयं अपने आपको ही दण्‍ड के रुप में प्रकट किया। उससे धर्माचरण होता देख नीतिस्‍वरुपा देवी सरस्‍वती ने दण्‍ड नीति की रचना की जो तीनों लोकों में विख्‍यात है।

भगवान शूलपाणि ने पुन: चिरकाल तक चिन्‍तन करके भिन्‍न-भिन्‍न समूह का एक-एक राजा बनाया। उन्‍होंने सहस्‍त्र नेत्रधारी इन्‍द्रदेव को देवेश्‍वर के पद पर प्रतिष्ठित किया और सूर्यपुत्र यम की पितरों का राजा बनाया। कुबेर को धन और राक्षसों का, सुमेरु को पर्वतो का और महासागर को सरिताओं का स्‍वामी बना दिया। शक्तिशाली भगवान वरुण को जल और असुरों के राज्‍य पर प्रतिष्ठित किया। मृत्‍यु को प्राणों का तथा अग्नि देव को तेज का आधिपत्‍य प्रदान किया। विशाल नेत्रों वाले सनातन महात्‍मा महादेव जी ने अपने आपको रुद्रों का अधीश्‍वर तथा शक्तिशाली संरक्षक बनाया। वसिष्‍ठ ब्रह्मणों का, जातवेदा अग्नि को वसुओं का, सूर्य को तेजस्‍वी ग्रहों का और चन्‍द्रमा को नक्षत्रों का अधिपति बनाया। अंशुमान् को लताओं का तथा बारह भुजाओं से विभूषित शक्तिशाली कुमार स्‍कन्‍द को भुतों का श्रेष्‍ठ राजा नियुक्‍त किया। संहार और विनय (उत्‍पादन) जिसका स्‍वरुप हैं, उस सर्वेश्‍वर काल को चार प्रकार की मृत्‍यु का, सुख का और दु:ख का भी स्‍वामी बनाया।। सबके देवता, राजाओं के राजा ओर मनुष्‍यों के अधिपति शूलपाणि भगवान् शिव स्‍वयं समस्‍त रुद्रों के अधीश्‍वर हुए। ऐसा माना जाता है। ब्रहाजी के छोटे पुत्र क्षुप को उन्‍हेांने समस्‍त प्रजाओं तथा सम्‍पूर्ण धर्मधारियों का श्रेष्‍ठ अधिपति बना दिया। तदनन्‍तर ब्रह्माजी का वह यज्ञ जब विधिपूर्वक सम्‍पन्‍न हो गया,

तब महादेवजी ने धर्मरक्षक भगवान विष्‍णु का सत्‍कार करके उन्‍हें वह दण्‍ड समर्पित किया। भगवान् विष्‍णु ने उसे अंगिरा को दे दिया। मुनिवर अंगिरा ने इन्‍द्र और मरीचि को दिया और मरीचि ने भृगु को सौंप दिया। भृगु ने वह धर्मसमाहित दण्‍ड ऋषियों को दिया। ऋषियों ने लोकपालों को, लोकपालों ने क्षुप को, क्षुपने सूर्यपुत्र मनु (श्राद्धदेव) को और श्राद्धदेव ने सूक्ष्‍म धर्म तथा अर्थ की रक्षा के लिये उसे उसे अपने पुत्रों को सौंप दिया। अत: धर्म के अनुसार न्‍याय-अन्‍याय का विचार करके ही दण्‍ड का विधान करना चाहिये, मनमानी नहीं करनी चाहिये। दुष्‍टों का दमन करना ही दण्‍ड का मुख्‍य उदेश्‍य है, स्‍वर्णमुद्राएं लेकर खजाना भरना नहीं। दण्‍ड के तौर पर सुवर्ण (धन) लेना तो ब्राह्मंग-गौण कर्म है। किसी छोटे-से अपराध पर प्रजा का अंग-भंग करना, उसे मार डालना, उसे तरह-तरह की यातनाएं देना तथा उसको देहत्‍याग के लिये विवश करना अथवा देश से निकाल देना कदापि उचित नहीं है। सूर्यपुत्र मनु ने प्रजा की रक्षा के लिये ही अपने पुत्रों के हाथों में दण्‍ड सौंपा था, वही क्रमश: उत्तरोतर अधिकारियों के हाथ में आकर प्रजा का पालन करता हुआ जागता रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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