महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 10 श्लोक 19-28

दशम (10) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 19-28 का हिन्दी अनुवाद


इसलिये जिनकी क्षात्रधर्म के लिये उत्पत्ति हुई है, जो क्षात्र धर्म में ही तत्पर रहते हैं तथा क्षात्र-धर्म का ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, वे क्षत्रिय स्वयं ही उस क्षात्र धर्म की निन्दा कैसे कर सकते हैं? इसके लिये उस विधाता की ही निन्दा क्यों न की जाय, जिन्होंने क्षत्रियों के लिये युद्ध-धर्म का विधान किया है। श्रीहीन, निर्धन एवं नास्तिकों ने वेद के अर्थवाद् वाक्यों द्वारा प्रतिपादित विज्ञान का आश्रय ले सत्य-सा प्रतीत होने वाले मिथ्या मत का प्रचार किया है (वैसे वचनों द्वारा क्षत्रिय का संन्यास में अधिकार नहीं सिद्ध होता है)। धर्म का बहाना लेकर अपने द्वारा केवल अपना पेट पालते हुए मौनी बाबा बनकर बैठ जाने से कर्तव्य से भ्रष्ट होना ही सम्भव है, जीवन को सार्थक बनाना नहीं। जो पुत्रों और पौत्रों के पालन में असमर्थ हो, देवताओं, ऋषियों तथा पितरों को तृप्त न कर सकता हो और अतिथियों को भोजन देने की भी शक्ति न रखता हो, ऐसा मनुष्य ही अकेला जंगलों में रहकर सुख से जीवन बिता सकता है (आप जैसे शक्तिशाली पुरुषों का यह काम नहीं है)।

सदा ही वन में रहने पर भी न तो ये मृग स्वर्ग लोक पर अधिकार पा सके हैं, न सूअर और पक्षी ही। पुण्य की प्राप्ति तो अन्य प्रकार से ही बतलायी गयी है। श्रेष्ठ पुरुष केवल वनवास को ही पुण्यकारक नहीं मानते। यदि कोई राजा संन्यास से सिद्धि प्राप्त कर ले, तब तो पर्वत और वृक्ष बहुत जल्दी सिद्धि पा सकते हैं। क्योंकि ये नित्य संन्यासी, उपद्रव शून्य, परिग्रहरहित तथा निरन्तर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले देखे जाते हैं। यदि अपने भाग्य में दूसरों के कर्मों से प्राप्त हुई सिद्धि आती, तब तो सभी को कर्म ही करना चाहिये। अकर्मण्य पुरुष को कभी कोई सिद्धि नहीं मिलती। (यदि अपने शरीर मात्र का भरण-पोषण करने से सिद्धि मिलती हो, तब तो) जल में रहने वाले जीवों तथा स्थावर प्राणियों को भी सिद्धि प्राप्त कर लेनी चाहिये; क्योंकि उन्हें केवल अपना ही भरण-पोषण करना रहता है। उनके पास दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जिसके भरण-पोषण का भार वे उठाते हों। देखिये और विचार कीजिये कि सारा संसार किस तरह अपने कर्मों में लगा हुआ है; अतः आपको भी क्षत्रियों-चित कर्तव्य का ही पालन करना चाहिये। जो कर्मों को छोड़ बैठता है, उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में भीमसेन का वचन-विषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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