महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 102 श्लोक 32-41

द्वयधिकशततम (102) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयधिकशततम अध्याय: श्लोक 32-41 का हिन्दी अनुवाद


परंतु आचार्यगण इस बात की प्रंशसा नहीं करते है; क्योंकि यह साधु पुरुषों का दृष्टान्त नहीं है। राजा को चाहिये कि वह पुत्र की ही भाँति अपने शत्रु को भी बिना क्रोध किये ही वश में करे; उसका विनाश न करे।

युधिष्ठिर! राजा यदि उग्रस्वभाव का हो जाय तो वह समस्त प्राणियों के द्वेष का पात्र बन जाता है और यदि सर्वथा कोमल हो जाय तो सभी उसकी अवहेलना करने लगते है; इसलिये उसे आवश्यकतानुसार उग्रता और कोमलता दोनों में से काम लेना चाहिये। भरतनन्दन! राजा शत्रु पर प्रहार करने से पहले और प्रहार करते समय भी उससे प्रिय वच नही बोले। प्रहार के बाद भी शोक प्रकट करते और रोते हुए से उसके प्रति दया दिखावे। वह शत्रु को सुनाकर इस प्रकार कहे- ओहे! इस युद्ध में मेरे सिपाहियों ने जो इतने वीरों को मार डाला है, यह मुझे अच्छा नहीं लगा है; परंतु क्या करूँ? बारंबार कहने पर भी ये मेरी बात नहीं मानते है। ‘अहो! सभी लोग अपने प्राणों की रक्षा करना चाहते है; अतः ऐसे पुरुष का वध करना उचित नहीं है। संग्राम में पीठ न दिखाने वाले सत्पुरुष इस संसार में अत्यन्त दुर्लभ हैं। मेरे जिन सैनिकों ने युद्ध में इस श्रेष्ठ वीर का वध किया है, उनके द्वारा मेरा बड़ा अप्रिय कार्य हुआ है।

शत्रु पक्ष के सामने वाणी द्वारा इस प्रकार खेद प्रकट करके राजा एकान्त में जाने पर अपने उन बहादूर सिपाहियों की प्रशंसा करे, जिन्होंने शत्रु पक्ष के प्रमुख वीरों का वध किया हो इसी तरह शत्रुओं को मारने वाले अपने पक्ष के वीरों में से जो हताहत हुए हों, उनकी हानि के लिये इस प्रकार दुःख प्रकट करे, जैसे अपराधी किया करते हैं। जन मत को अपने अनुकूल करने की इच्छा से जिसकी हानि हुई हो, उसकी बाँह पकड़ कर सहानुभूति प्रकट करते हुए जोर-जोर से रोवे और विलाप करे। इस प्रकार सब अवस्थाओं में जो सान्त्वना पुर्ण बर्ताव करता है, वह धर्मज्ञ राजा सब लोगों का प्रिय एंव निर्भय हो जाता है। भरत नन्दंन! उसके ऊपर सब प्राणी विश्वास करने लगते हैं। विश्वासपात्र हो जाने पर वह सबके निकट रहकर इच्छानुसार सारे राष्ट्र का उपभोग कर सकता है। अतः जो राजा इस पृथ्वी का राज्य भोगना चाहता है, उसे चाहिये कि छल-कपट छोड़ कर अपने ऊपर समस्तप्राणियों का विश्वास उत्पन्न करे और इस भूमण्डली की सब ओर से रक्षा करे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वं में सेनानीति का वर्णनविषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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