महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 59-78

त्रिषष्टितम (63) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व:त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 59-78 का हिन्दी अनुवाद

सुबलनन्दिनि! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो और समझो। शुभे! इस संसार में तुम्हारी जैसी तपोबल सम्पन्न स्त्री दूसरी कोई नहीं है। रानी! तुम्हें याद होगा, उस दिन सभा में मेरे सामने ही तुमने दोनों पक्षों का हित करने वाला धर्म और अर्थयुक्त वचन कहा था, किंतु कल्याणि! तुम्हारे पुत्रों ने उसे नहीं माना। तुमने विजय की अभिलाषा रखने वाले दुर्योधन को सम्बोधित करके उससे बड़ी रूखाई के साथ कहा था- 'ओ मूढ़! मेरी बात सुन ले, जहाँ धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है।' कल्याणकारी राजकुमारी! तुम्हारी वही बात आज सत्य हुई है, ऐसा समझकर तुम मन में शोक न करो। पाण्डवों के विनाश का विचार तुम्हारे मन में कभी नहीं आना चाहिए। महाभागे! तुम अपनी तपस्या के बल से क्रोधभरी दृष्टि द्वारा चराचर प्राणियोंसहित समूची पृथ्वी को भस्म कर डालने की शक्ति रखती हो। भगवान श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर गांधारी ने कहा- महाबाहु केशव! तुम जैसा कहते हो, वह बिल्कुल ठीक है। अब तक मेरे मन में बड़ी व्यथाएं थीं और उन व्यथाओं की आग से दग्ध होने के कारण मेरी बुद्धि विचलित हो गयी थी (अतः मैं पाण्डवों के अनिष्ट की बात सोचने लगी थी); परंतु जनार्दन! इस समय तुम्हारी बात सुनकर मेरी बुद्धि स्थिर हो गयी है- क्रोध का आवेश उतर गया है। मनुष्यों में श्रेष्ठ केशव! ये राजा अन्धे और बूढ़े हैं तथा इनके सभी पुत्र मारे गये हैं। अब समस्त वीर पाण्डवों के साथ तुम्हीं इनके आश्रयदाता हो। इतनी बात कहकर पुत्र शोक से संतप्त हुई गांधारी देवी अपने मुख को आंचल से ढककर फूट-फूटकर रोने लगीं। तब महाबाहु भगवान केशव ने शोक से दुर्बल हुई गांधारी को कितने ही कारण बताकर युक्तियुक्त वचनों द्वारा आश्वासन दिया-धीरज बंधाया।

गांधारी और धृतराष्ट्र को सान्त्वना दे माधव श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के मन में जो भीषण संकल्प हुआ था, उसका स्मरण किया। राजेन्द्र! तदनन्तर वे सहसा उठकर खड़े हो गये और व्यास जी के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम करके कुरुवंशी धृतराष्ट्र से बोले- कुरुश्रेष्ठ! अब मैं आपसे जाने की आज्ञा चाहता हूँ। अब आप अपने मन को शोकमग्न न कीजिये। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के मन में पापपूर्ण संकल्प उदित हुआ है। इसीलिये मैं सहसा उठ गया हूँ। उसने रात को सोते समय पाण्डवों के वध का विचार किया है। यह सुनकर गांधारी सहित महाबाहु धृतराष्ट्र ने केशिहन्ता केशव से कहा- महाबाहु जनार्दन! आप शीघ्र जाइये और पाण्डवों की रक्षा कीजिये। मैं पुनः शीघ्र ही आपसे मिलूंगा। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण दारुक के साथ वहाँ से शीघ्र चल दिये। राजन! श्रीकृष्ण के चले जाने पर अप्रमेयस्वरूप विश्ववन्दित भगवान व्यास ने राजा धृतराष्ट्र को सान्तवना दी। नरेश्वर! इधर धर्मात्मा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण कृतकृत्य हो हस्तिनापुर से पाण्डवों को देखने के लिये शिबिरों में लौट आये। शिविर में आकर रात में वे पाण्डवों से मिले और उनसे सारा समाचार कहकर उन्हीं के साथ सावधान होकर रहे।

इस प्रकार श्री महाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व में धृतराष्ट्र और गान्धारी का श्रीकृष्ण को आश्वासन देना विषयक तिरसठवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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