महाभारत शल्य पर्व अध्याय 60 श्लोक 16-26

षष्टितम (60) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

Prev.png

महाभारत: शल्य पर्व: षष्टितम अध्याय: श्लोक 16-26 का हिन्दी अनुवाद

'मैं समझता हूँ कि इस जगत में अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना क्षत्रिय के लिये धर्म ही है। पहले सभा में भीमसेन ने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं महायुद्ध में अपनी गदा से दुर्योधन की दोनों जांघें तोड़ डालूंगा। शत्रुओं को संताप देने वाले बलराम जी! महर्षि मैत्रेय ने भी दुर्योधन को पहले से ही यह शाप दे रखा था कि भीमसेन अपनी गदा से तेरी दोनों जांघें तोड़ डालेंगें। अत लम्बहनता बलभद्र जी! मैं इसमें भीमसेन का कोई दोष नहीं देखता; इसलिये आप भी क्रोध न कीजिये। हमारा पाण्डवों के साथ यौन-संबंध तो है ही। परस्पर सुख देने वाले सौहार्द से भी हम लोग बंधे हुए हैं। पुरुष प्रवर! इन पाण्डवों की वृद्धि से हमारी भी वृद्धि है, अतः आप क्रोध न करें।' श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर धर्मज्ञ हलधर ने इस प्रकार कहा- 'श्रीकृष्ण! श्रेष्ठ पुरुषों ने धर्म का अच्छी तरह आचरण किया है; किंतु वह अर्थ और काम- इन दो वस्तुओं से संकुचित हो जाता है। अत्यन्त लोभी का अर्थ और अधिक आसक्ति रखने वाले का काम- ये दोनों ही धर्म को हानि पहुँचाते हैं! जो मनुष्य काम से धर्म और अर्थ को, अर्थ से धर्म और काम को तथा धर्म से अर्थ और काम को हानि न पहुँचाकर धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथोचित रूप से सेवन करता है, वह अत्यन्त सुख का भागी होता है। गोविन्द! भीमसेन ने (अर्थ के लोभ से) धर्म को हानि पहुँचाकर इन सबको विकृत कर डाला है। तुम मुझसे जिस प्रकार इस कार्य को धर्मसंगत बता रहे हो वह सब तुम्हारी मनमानी कल्पना है।'

श्रीकृष्ण ने कहा- 'भैया! आप संसार में क्रोधरहित, धर्मात्मा और निरन्तर धर्म पर अनुग्रह रखने वाले सत्पुरुष के रूप में विख्यात हैं; अतः शान्त हो जाइये, क्रोध न कीजिये। समझ लीजिये कि कलियुग आ गया। पाण्डुपुत्र भीमसेन की प्रतिज्ञा पर भी ध्यान दीजिये। आज पाण्डुकुमार भी वैर और प्रतिज्ञा के ऋण से मुक्त हो जायं। पुरुषसिंह भीम रणभूमि में कपटी दुर्योधन को मारकर चले गये। उन्होंने जो अपने शत्रु का वध किया है, इसमें कोई अधर्म नहीं है। इसी दुर्योधन ने कर्ण को आज्ञा दी थी, जिससे उसने कुरु और वृष्णि दोनों कुलों के सुयश की वृद्धि करने वाले, युद्धपरायण, वीर अभिमन्यु के धनुष को समरांगण में पीछे से आकर काट दिया था। इस प्रकार धनुष कट जाने और रथ से हीन हो जाने पर भी जो पुरुषार्थ में ही तत्पर था, रणभूमि में पीठ न दिखाने वाले उस सुभद्राकुमार अभिमन्यु को इसने निहत्था करके मार डाला था। यह दुरात्मा, दुर्बुद्धि एवं पापी दुर्योधन जन्म से ही लोभी तथा कुरुकुल का कलंक रहा है, जो भीमसेन के हाथ से मारा गया है। भीमसेन की प्रतिज्ञा तेरह वर्षों से चल रही थी और सर्वत्र प्रसिद्ध हो चुकी थी। युद्ध करते समय दुर्योधन ने उसे याद क्यों नहीं रखा? यह वेग से ऊपर उछलकर भीमसेन को मार डालना चाहता था। उस अवस्था में भीम ने अपनी गदा से इसकी दोनों जांघें तोड़ डाली थीं। उस समय न तो यह किसी स्थान में था और न मण्डल में ही।' संजय कहते हैं- प्रजानाथ! भगवान श्रीकृष्ण से यह छलरूप धर्म का विवेचन सुनकर बलदेव जी के मन को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने भरी सभा में कहा-

Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः