महाभारत शल्य पर्व अध्याय 50 श्लोक 43-63

पन्चाशत्तम (50) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: पन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद

शत्रुओं का दमन करने वाले नरेश! इसके बाद असित ने मुनिवर जैगीषव्य को पुनः किसी लोक में स्थित नहीं देखा। वे अदृश्य हो गये थे। तत्पश्चात महाभाग देवल ने जैगीषव्य के प्रभाव, उत्तम व्रत और अनुपम योग सिद्धि के विषय में विचार किया। इसके बाद धैर्यवान असित ने उन लोकों में रहने वाले ब्रह्माजी सिद्धों और साधु पुरुषों से हाथ जोड़कर विनीत भाव से पूछा- ‘महात्माओं! मैं महातेजस्वी जैगीषव्य को अब देख नहीं रहा हूँ। आप उनका पता बतावें। मैं उनके विषय में सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है’। सिद्धों ने कहा- दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले देवल! सुनो। हम तुम्हें वह बात बता रहे हैं, जो हो चुकी है। जैगीषव्य मुनि सनातन ब्रह्मलोक में जा पहुँचे हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उन ब्रह्मयाजी सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि तुरंत ऊपर की ओर उछले, परंतु नीचे गिर पड़े। तब उन सिद्धों ने पुनः देवल से कहा- ‘तपोधन देवल! विप्रवर! जहाँ जैगीषव्य गये हैं, उस ब्रह्मलोक में जाने की शक्ति तुममें नहीं है’। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उन सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि पुनः क्रमशः उन सभी लोकों में होते हुए नीचे उतर आये। पक्षी की तरह उड़ते हुए वे अपने पुण्यमय आश्रम पर आ पहुँचे। आश्रम के भीतर प्रवेश करते ही देवल ने जैगीषव्य मुनि को वहाँ बैठा देखा। तब देवल ने जैगीषव्य की तपस्या का वह योगजनित प्रभाव देखकर धर्म युक्त बुद्धि से उस पर विचार किया।

राजन! इसके बाद महामुनि महात्मा जैगीषव्य के पास जाकर देवल ने विनीत भाव से कहा- ‘भगवन! मैं मोक्ष धर्म का आश्रय लेना चाहता हूँ।’ उनकी वह बात सुनकर महातपस्वी जैगीषव्य ने उनका संन्यास लेने का विचार जानकर उन्हें ज्ञान का उपदेश किया। साथ ही योग की उत्तम विधि बताकर शास्त्र के अनुसार कर्तव्य अकर्तव्य का भी उपदेश दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने शास्त्रीय विधि के अनुसार उनके संन्यास ग्रहण सम्बन्धी समस्त कार्य (दीक्षा और सस्कार आदि) किये। उनका संन्यास लेने का विचार जानकर पितरों सहित समस्त प्राणी यह कहते हुए रोने लगे ‘कि अब हमें कौन विभागपूर्वक अन्नदान करेगा। दसों दिशाओं में विलाप करते हुए उन प्राणियों का करुणा युक्त वचन सुनकर देवल ने मोक्ष धर्म (संन्यास) को त्याग देने को विचार किया। भारत! यह देख फल-मूल, पवित्री (कुश), पुष्प और ओषधियां- ये सहस्रों पदार्थ यह कहकर बरंबार रोने लगे कि ‘यह खोटी बुद्धि वाला क्षुद्र देवल निश्चय ही फिर हमारा उच्छेद करेगा। तभी तो यह सम्पूर्ण भूतों को अभयदान देकर भी अब अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण नहीं करता है’। तब मुनि श्रेष्ठ देवल पुनः अपनी बुद्धि से विचार करने लगे, मोक्ष ओर गार्हस्थ्य धर्म इनमें से कौन सा मेरे लिये श्रेयस्कर होगा। नृपश्रेष्ठ! देवल ने मन ही मन इस बात पर निश्चित विचार करके गार्हस्थ्य धर्म को त्याग कर अपने लिये मोक्ष धर्म को पसंद किया। भारत! इन सब बातों को सोच-विचार कर देवल ने जो संन्यास लेने का ही निश्चय किया, उससे उन्होंने परम सिद्धि और उत्तम योग को प्राप्त कर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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