महाभारत शल्य पर्व अध्याय 36 श्लोक 20-39

षट्त्रिंश (36) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद

पशुओं के उस महान समुदाय को देखकर एकत और द्वित के मन में यह चिन्ता समायी कि किस उपाय से ये गौएं त्रित को न मिल कर हम दोनों के ही पास रह जायं। जनेश्वर! उन एकत और द्वित दोनों पापियों ने एक दूसरे से सलाह करके परस्पर जो कुछ कहा, वह बताता हूं, सुनो। त्रित यज्ञ कराने में कुशल हैं, त्रित वेदों के परिनिष्ठित विद्वान हैं, अतः वे और बहुत सी गौएं प्राप्त कर लेंगे। इस समय हम दोनों एक साथ होकर इन गौओं। को हांक ले चलें और त्रित हमसे अलग होकर जहाँ इच्छा हो वहाँ चले जायं। रात्रि का समय था और वे तीनों भाई रास्ता पकड़े चले आ रहे थे। उनके मार्ग में एक भेडि़या खड़ा था। वहाँ पास ही सरस्वती के तट पर एक बहुत बड़ा कुआं था। त्रित अपने आगे रास्ते में खड़े हुए भेडि़ये को देखकर उसके भय से भागने लगे। भागते-भागते वे समस्त प्राणियों के लिये भयंकर उस महाघोर अगाध कूप में गिर पड़े। महाराज! कुएं में पहुँचने पर मुनिश्रेष्ठ त्रित ने बड़े जोर से आर्तनाद किया, जिसे उन दोनों मुनियों ने सुना। अपने भाई को कुएं में गिरा हुआ जानकर भी दोनों भाई एकत और द्वित भेड़िये के भय और लोभ से उन्हें वहीं छोड़कर चल दिये। राजन! पशुओं के लोभ में आकर उन दोनों भाइयों ने उस समय उन महातपस्वी त्रित को धूलि से भरे हुए उस निर्जल कूप में ही छोड़ दिया।

भरतश्रेष्ठ! जैसे पापी मनुष्य अपने-आपको नरक में डूबा हुआ देखता है, उसी प्रकार तृण, वीरुध और लताओं से व्याप्त हुए उस कुएं में अपने आपको गिरा देख मृत्यु से डरे और सोमपान से वंचित हुए विद्वान त्रित अपनी बुद्धि से सोचने लगे कि ‘मैं इस कुएं में रहकर कैसे सोमरस का पान कर सकता हूँ’। इस प्रकार विचार करते-करते महातपस्वी त्रित ने उस कुएं में एक लता देखी, जो दैव योग से वहाँ फैली हुई थी। मुनि ने उस बालू भरे कूप में जल की भावना करके उसी में संकल्प द्वारा अग्नि की स्थापना की और होता आदि के स्थान पर अपने आपको ही प्रतिष्ठित किया। तत्पश्चात उन महातपस्वी त्रित ने उस फैली हुई लता में सोम की भावना करके मन ही मन ऋग, यजु और साम का चिन्तन किया। नरेश्वर! इसके बाद कंकड़ या बालू-कणों में सिल और लोढ़े की भावना करके उस पर पीस कर लता से सोमरस निकाला। फिर जल में घी का संकल्प करके उन्होंने देवताओं के भाग नियत किये और सोमरस तैयार करके उसकी आहुति देते हुए वेद-मन्त्रों की गम्भीर ध्वनि की। राजन! ब्रह्मवादियों ने जैसा बताया है, उसके अनुसार ही उस यज्ञ का सम्पादन करके की हुई त्रित की वह वेदध्वनि स्वर्ग लोक तक गूंज उठी। महात्मा त्रित का वह महान यज्ञ जब चालू हुआ, उस समय सारा स्वर्ग लोक उद्विग्न हो उठा, परंतु किसी को उसका कोई कारण नहीं जान पड़ा। तब देवपुरोहित बृहस्पति जी ने वेदमन्त्रों के उस तुमुलनाद को सुनकर देवताओं से कहा- ‘देवगण! त्रित मुनि का यज्ञ हो रहा है, वहाँ हम लोगों को चलना चाहिये।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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