महाभारत शल्य पर्व अध्याय 33 श्लोक 17-36

त्रयस्त्रिश (33) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

Prev.png

महाभारत: शल्य पर्व: त्रयस्त्रिश अध्याय: श्लोक 17-36 का हिन्दी अनुवाद

यह सुनकर भीमसेन बोले- 'मधुसूदन! आप विषाद न करें। यदुनन्दन! मैं आज वैर की उस अन्तिम सीमा पर पहुँच जाऊंगा, जहाँ जाना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। श्रीकृष्ण! इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि मैं युद्ध में सुयोधन को मार डालूंगा। मुझे तो धर्मराज की निश्चय ही विजय दिखायी देती है। मेरी यह गदा दुर्योधन की गदा से डेढ़ गुनी भारी है। ऐसी दुर्योधन की गदा नहीं है; अतः माधव! आप व्यथित न हों। मैं समरागंण में इस गदा द्वारा इससे भिड़ने का उत्साह रखता हूँ। जनार्दन! आप सब लोग दर्शक बनकर मेरा युद्ध देखते रहें। श्रीकृष्ण! मैं रणक्षेत्र में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र धारण करने वाले देवताओं सहित तीनों लोकों के साथ युद्ध कर सकता हूं; फिर इस सुयोधन की तो बात ही क्या है'?

संजय कहते हैं- महाराज! भीमसेन ने जब ऐसी बात कही, तब भगवान श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न होकर उनकी प्रशंसा करने लगे और इस प्रकार बोले- ‘महाबाहो! इसमें संदेह नहीं कि धर्मराज युधिष्ठिर ने तुम्हारा आश्रय लेकर ही शत्रुओं का संहार करके पुनः अपनी उज्ज्वल राज्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया है। धृतराष्ट्र के सभी पुत्र तुम्हारे ही हाथ से युद्ध में मारे गये हैं। तुमने कितने ही राजाओं, राजकुमारों और गजराजों को मार गिराया है। पाण्डुनन्दन! कलिंग, मगध, प्राच्य, गान्धार और कुरुदेश के योद्धा भी इस महायुद्ध में तुम्हारे सामने आकर काल के गाल में चले गये हैं। कुन्तीकुमार! जैसे भगवान विष्णु ने शचीपति इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान किया था, उसी प्रकार तुम भी दुर्योधन का वध करके समुद्रों सहित यह सारी पृथ्वी धर्मराज युधिष्ठिर को समर्पित कर दो। अवश्य ही रणभूमि में तुमसे टक्कर लेकर पापी दुर्योधन नष्ट हो जायगा और तुम उसकी दोनों जांघें तोड़ कर अपनी प्रतिज्ञा का पालन करोगे। किंतु पार्थ! तुम्हें दुर्योधन के साथ सदा प्रयत्नपूर्वक युद्ध करना चाहिये; क्योंकि वह अभ्यास कुशल, बलवान और युद्ध की कला में निरन्तर चतुर है’। राजन! तदनन्तर सात्यकि ने पाण्डुपुत्र भीमसेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। धर्मराज आदि पाण्डव तथा पाञ्चाल सभी ने भीमसेन के उस वचन का बड़ा आदर किया।

तदनन्तर भयंकर बलशाली भीमसेन ने सृंजयों के साथ खड़े हुए तपते सूर्य के समान तेजस्वी युधिष्ठिर से कहा- ‘भैया! मैं रणभूमि में इस दुर्योधन के साथ भिड़कर लड़ने का उत्साह रखता हूँ। यह नराधम मुझे युद्ध में परास्त नहीं कर सकता। मेरे हृदय में दीर्घकाल से जो अत्यन्त क्रोध संचित है, उसे आज मैं धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन पर उसी प्रकार छोडूंगा, जैसे अर्जुन ने खाण्डव वन में अग्निदेव को छोड़ा था। पाण्डुनन्दन! नरेश! आज मैं गदा द्वारा पापी दुर्योधन का वध करके आपके हृदय का कांटा निकाल दूंगा; अतः आप सुखी होइये। अनघ! आज आपके गले में मैं कीर्तिमयी माला पहनाऊंगा तथा आज यह दुर्योधन अपने राज्यलक्ष्मी और प्राणों का परित्याग करेगा। आज मेरे हाथ से पुत्र को मारा गया सुनकर राजा धृतराष्ट्र शकुनि की सलाह से किये हुए अपने अशुभ कर्मों को याद करेंगे’।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः