महाभारत विराट पर्व अध्याय 7 श्लोक 6-15

सप्तम (7) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 6-15 का हिन्दी अनुवाद


'इनका वेश तो ब्राह्मण का सा है, किंतु ये ब्राह्मण नहीं हो सकते। ये नरश्रेष्ठ तो कहीं के भूपति ही होंगे; ऐसा विचार मेरे मन में उठ रहा है। परंतु इनके साथ दास, रथ और हाथी-घोड़े आदि कुछ भी नहीं है। फिर भी ये निकट से इन्द्र के समान सुशोभित हो रहे हैं। इनके शरीर में जो लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे हैं, उनसे यह सूचित होता है कि ये मूर्द्धाभिषिक्त सम्राट हैं। मेरे मन में तो यही बात आती है। जैसे मतवाला हाथी बेखटके किसी कमलिनी के पास जाता हो, उसी प्रकार ये बिना किसी संकोच के-व्यथारहित होकर मेरी सभा में आ रहे हैं’।

इस प्रकार तर्क-वितर्क में पड़े हुए राजा विराट के पास आकर नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने कहा- ‘महाराज! आपको विदित हो; मैं एक ब्राह्मण हूँ, मेरा सर्वस्व नष्ट हो गया है; अतः मैं आपके यहाँ जीवन निर्वाह के लिये आया हूँ। अनघ! मैं यहाँ आपके समीप रहना चाहता हूँ। प्रभो! जैसी आपकी इच्छा होगी, उसी प्रकार सब कार्य करते हुए मैं यहाँ रहूँगा।’ युधिष्ठिर की बात सुनकर राजा विराट बहुत प्रसन्न हुए और बोले- ‘ब्रह्मन्! आपका स्वागत है।’ तदनन्तर उन्होंने राजाओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर को सादर ग्रहण किया। ग्रहण करके राजा विराट ने प्रसन्न मन से उनसे इस प्रकार कहा- ‘तात! मैं प्रेमपूर्वक आपसे पूछता हूँ, आप इस समय किस राजा के राज्य से यहाँ आये हैं? अपने गोत्र और नाम भी ठीक-ठीक बताइये। साथ ही यह भी कहें कि आपने किस विद्या या कला में कुशलता प्राप्त की है’।

युघिष्ठिर ने कहा- महाराज विराट! मैं वैयाघ्रपद गोत्र में उत्पन्न हुआ ब्राह्मण हूँ। लोगों में ‘कंक’ नाम से मेरी प्रसिद्धि है। मैं पहले राजा युधिष्ठिर के साथ रहता था। वे मुझे अपना सखा मानते थे। मैं चौसर खेलने वालों के बीच पासे फेंकने की कला में कुशल हूँ।

विराट बोले- ब्रह्मन्! मैं आपको वर देता हूँ; आप जो चाहें, माँग लें। समूचे मत्स्य देश पर शासन करें। मैं आपके वश में हूँ; क्योकि द्यूतक्रीड़ा में निपुण, चतुर, चालाक मनुष्य मुझे सदा प्रिय है। देवोपम ब्राह्मण! आप तो राज्य पाने के योग्य हैं।

युधिष्ठिर ने कहा- मत्स्यराज! नरनाथ। मुझे किसी हीन वर्ण के मनुष्य से विवाद न करना पड़े, यह मैं पहला वर माँगता हूँ तथा मुझसे पराजित होने वाला कोई भी मनुष्य हारे हुए धन को अपने पास न रखे (मुझे दे दे)। आपकी कृपा से यह दूसरा वर मुझे प्राप्त हो जाये, तो मैं रह सकता हूँ।

विराट बोले- ब्रह्मन्! यदि कोई ब्राह्मणेतर मनुष्य आपका अप्रिय करेगा तो उसे मैं निश्चय ही प्राण दण्ड दूँगा। यदि ब्राह्मणों ने आपका अपराध किया तो उन्हें देश से निकाल दूँगा। (युधिष्ठिर से ऐसा कहकर राजा विराट अन्य सभासदों से बोले) मेरे राज्य में निवास करने वाले और इस सभा में आये हुए लोगों! मेरी बात सुनो, जैसे मैं इस मत्स्य देश का स्वामी हूँ, वैसे ही ये कंक भी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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