महाभारत विराट पर्व अध्याय 58 श्लोक 14-26

अष्टपंचाशत्तम (58) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: अष्टपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद


महाबलीद द्रोण और कुन्ती पुत्र अर्जुन दोनों महारथी बल वीर्य सम्पन्न, अजेय, अस्त्र विद्या के विशेषज्ञ और मनस्वी थे। युद्ध के सिरे पर वे दोनों आचार्य और शिष्य अपने अपने रथ पर बैठे हुए ( ही एक दूसरे की ओर हाथ बढ़ाकर मानो ) परस्पर आलिंगन करने लगे। उन्हें इस अवस्था में देखकर भरत वंशियों की वह विशाल सेना बारंबार भय से काँपने लगी। तदनन्तर शत्रुवीरों का नाश करने वाले महारथी और महापराक्रमी कुन्ती पुत्र अर्जुन हर्षोल्लास में भर गये और आचार्य द्रोण के रथ से अपना रथ भिड़ाकर उन्हें प्रणाम करके हँसते हुए से शान्ति पूर्वक मधुर वाणी में यों बोले -। ‘आचार्य! युद्ध में आप पर विजय पाना सर्वथा कठिन है। हम लोग अहुत वर्षों तक वन में रहकर कष्ट उठाते रहे हैं। अब शत्रुओं से बदला लेने की इचदा से आये हैं; अतः आप हम लोगों पर क्रोध न करें। अनघ! मैं तो आप पर तभी प्रहार करूँगा, जब पहले आप मुझ पर प्रहार कर लेंगे। मेरा यही निश्चय है, अतः आप ही पहले मुझपर प्रहार करें’।

तब आचार्य द्रोण ने अर्जुन पर इक्कीस बाण चलाये; किंतु पार्थ ने उन सबको अपने पास आने से पहले ही काट गिराया, मानो उनके हाथ इस कला में पूर्ण सुशिक्षित थे। तदनन्तर पराक्रमी द्रोण ने अपनी अस्त्र चलाने की फुर्ती दिखाते हुए अर्जुन के रथ पर सहस्रों बाणों की वृष्टि की। उनका आत्मबल असीम था। उन्होंने चाँदी के समान अंग वाले अर्जुन के श्वेत घोड़ों को भी शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सफेद चील की पाँख वाले बाणों से ढँक दिया। जान पड़ता था, आचार्य यह सब करके अर्जुन के क्रोध को उभाड़ना चाहते थे। इस प्रकार भरद्वाज नन्दन द्रोण और किरीटधारी अर्जुन में युद्ध छिड़ गया। वे दोनों समर भूमि में ( एक दूसरे पर ) समान रूप से बाणों की वर्षा करने लगे। दोनों की विख्यात पराक्रमी थे। वेग में दोनों ही वायु के समान थे। वे दोनों गुरु शिष्य दिव्यास्त्रों के महापण्डित और उत्तम तेज से सम्पन्न थे। परसपर बाणों की झड़ी लगाते हुए दोनों ने सब राजाओं को मोह में डाल दिया। तदनन्तर जो जो सैनिक वहाँ आये थे, वे एक दमसरे पर तीव्र गति से बाण वर्षा करने वाले दोनों वीरों की ‘साधु - साधु’ कहकर सराहना करने लगे -। ‘भला, में अर्जुन के सिवा दूसरा कौन द्रोणाचार्य का सामना कर सकता है ? यह क्षत्रिय धर्म कितना भयंकर है कि शिष्य को गु3 से युद्ध करना पड़ा है।’ इस प्रकार वहाँ युद्ध के मुहाने पर खड़े हुए योद्धा आपस में बातें करते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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