चतुर्थ (4) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 48-58 का हिन्दी अनुवाद
तात युधिष्ठिर एवं पाण्डवो! इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक अपने मन को वश में रखकर पूर्वोक्त रीति से उत्तम बर्ताव करते हुए इस तेरहवें वर्ष को व्यतीत करो और इसी रूप में रहकर एश्वर्य पाने की इच्छा करो। तदनन्तर अपने राज्य में आकर इच्छानुसार व्यवहार करना। युधिष्ठिर बोले- ब्रह्मन्! आपका भला हो। आपने हमें बहुत अच्छी शिक्षा दी। हमारी माता कुन्ती तथा महाबुद्धिमान् विदुर जी को छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो हमें ऐसी बात बताये। अब हमें इस दुःख सागर से पार होने, यहाँ से प्रस्थान करने और विजय पाने के लिये जो कर्तव्य आवश्यक हो, उसे आप पूर्ण करें। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर विप्रवर धौम्य जी ने यात्रा के समय जो आवश्यक शास्त्रविहित कर्तव्य है, वह सब विधिपूर्वक सम्पन्न किया। पाण्डवों की अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को प्रज्वलित करके उन्होंने उनकी समृद्धि, वृद्धि राज्यलाभ तथा पृथ्वी पर विजय प्राप्ति के लिये वेदमन्त्र पढ़कर होम किया। तत्पश्चात् पाण्डवों ने अग्नि तथा तपस्वी ब्राह्मणों की परिक्रमा करके द्रौपदी को आगे रखकर वहाँ से प्रस्थान किया। कुल छः व्यक्ति ही आसन छोड़कर एक साथ चले गये। उन पाण्डव वीरों के चले जाने पर जपयज्ञ करने वालों में श्रेष्ठ धौम्य जी उस अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को साथ लेकर पांचाल देश में चले गये। इन्द्रसेन आदि सेवक भी पूर्वोक्त आदेश पाकर यदुवंशियों की नगरी द्वारका में जा पहुँचे और वहाँ स्वयं सुरक्षित हो रथ और घोड़ों की रक्षा करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में धौम्योपदेश सम्बन्धी चौथा अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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