चतुर्थ (4) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद
इसमें संदेह नहीं कि जो मिथ्या एवं कपटपूर्ण उपचार के द्वारा राजा की सेवा करता है, वह एक दिन अवश्य उसके हाथ से मारा जाता है। राजा जिस-जिस कार्य के लिये आज्ञा दे, उसी का पालन करे। लापरवाही ,घमंड और क्रोध को सर्वथा त्याग दे। कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय के सभी अवसरों पर हितकारक और प्रिय वचन कहे। यदि दोनों सम्भव न हों, तो प्रिय वचन का त्याग करके भी जो हितकारक हो, वही बात कहे (हितविरोधी प्रिय वचन कदापि न कहे)। सभी विषयों तथा सब बातों में राजा के अनुकूल रहे। कथा वार्ता में भी राजा के सामने ऐसी बातों की बार-बार चर्चा न करे, जो उसे अप्रिय एवं अहितकर प्रतीत होती हों। विद्वान् पुरुष ‘मैं राजा का प्रिय व्यक्ति नहीं हूँ’, ऐसा मानता हुआ सदा सावधान रहकर उसकी सेवा करे। राजा के लिये जो हितकर और प्रिय हो, वही कार्य करे। जो चीज राजा को पसंद न हो, उसका कदापि सेवन न करे। उसके शत्रुओं से बातचीत न करे और अपने स्थान से कभी विचलित न हो। ऐसा बर्ताव करने वाला मनुष्य ही राजा के यहाँ सकुशल रह सकता है। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह राजा के दाहिने या बायें भाग में बैठे; क्योंकि राजा के पीछे अस्त्र-शस्त्रधारी अंगरक्षकों का स्थान होता है। राजा के सामने किसी के लिये भी ऊँचा आसन लगाना सर्वथा निषिद्ध है। उसकी आँखों के सामने यदि कोई पुरस्कार-वितरण या वेतनदान आदि का कार्य हो रहा हो, तो उसमें बिना बुलाये स्वयं पहले लेने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये। क्योंकि ऐसी ढिठाई तो दरिद्रों को भी बहुत अप्रिय जान पड़ती है; फिर राजाओं की तो बात ही क्या है? राजाओं की किसी झूठी बात को दूसरे मनुष्य के सामने प्रकाशित न करे। क्योंकि झूठ बोलने वाले मनुष्यों से राजा लोग द्वेष मान लेते हैं। इसी तरह जो लोग अपने को पण्डित मानते हैं, उनका भी राजा तिरस्कार करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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