चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! तदनन्तर विराट पुत्र उत्तर ने निकट जाकर अर्जुन के चरणों में प्रणाम किया और बोला - ‘मेरा नाम भूमिंजय तथा उत्तर भी है। ‘कुन्ती नन्दन! मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपका दर्शन मिला। धनुजय! आपका स्वागत है। महाबाहो! आपके नेत्र लाल हैं और बाहुबल गजराज के शुण्ड को लज्जित कर रहे हैं। ‘मैंने अज्ञानवश आपसे जो अनुचित बात कह दी हो, उसे आप क्षमा करेंगे। पूर्व काल में आपने अत्यन्त दुष्कर और अद्भुत कर्म किये हैं, इसलिये आपका संरक्षण पाकर मेरा भय दूर हो गया है और आपके प्रति मेरा प्रेम बहुत बढ़ गया है। ‘पार्थ! मैं आपका दास होऊँगा। आप मेरी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखें। मैंने आपके सारथि का कार्य करने के लिये पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिये अब मेरा मन स्वस्थ हो गया है। मेरा महान् सौभाग्य प्रकट हुआ है ( जिससे मुझे आपकी सेवा का यह शुभ अवसर प्राप्त हो रहा है )’। इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के अवसर पर अर्जुन परिचय सम्बन्धी चैवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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