महाभारत विराट पर्व अध्याय 38 श्लोक 43-51

अष्टात्रिंश (38) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 43-51 का हिन्दी अनुवाद


मैं तुम्हें सुवर्ण की मोहरें देता हूँ, साथ ही अत्यन्त प्रकायामान स्वर्ण जटित आठ वैदूर्य मणियाँ भेंट करता हूँ। इतना ही नहीं, उत्तम घोड़ों से जुते हुए तथा सुवर्णमय दण्ड से युक्त एक रथ और दस मतवाले हाथी भी दे रहा हूँ। बृहन्नले! यह सब ले लो, किंतु तुम मुझे छोड़ दो।।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! उत्तर इसी तरह की बाते कहता और विलाप करता हुआ अचेत हो रहा था। पुरुषसिंह अर्जुन उसकी बातों पर हँसते हुए उसे रथ के समीप ले आये। जब वह भय से आतुर होकर अपनी सुध बुध खोने लगा तब अर्जुन ने उससे कहा - ‘शत्रुनायान! यदि तुम्हें शत्रुओं के साथ युद्ध करने का उत्साह नहीं है तो चलो; मैं उनसे युद्ध करूँगा। तुम मेरे घोड़ों की बागडोर सँभालो। ‘तुम मेरे बाहुबल से सुरक्षित हो इस रथ को सेना की ओर चलो, जो महारथी वीरों से सुरक्षित, घोर एवं अत्यनत दुर्धर्ष है। ‘राजपुत्र शिरोमणे! भयभीत न होओ। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! तुम क्षत्रिय हो, पुरुषसिंह! तुम शत्रुओं के बीच में आकर विषाद कैसे कर रहे हो ?। ‘देखो, मैं इस अतीव दुर्धर्ष तथा दुर्गम रथ सेना में घुसकर कौरवों से युद्ध करूँगा और तुम्हारे पयाुओं को जीत लाऊँगा। ‘नरश्रेष्ठ! तुम केवल मेरे सारथि बन कर बैठे रहो। इन कौरवों के साथ युद्ध जो मैं करूँगा’। भरतश्रेष्ठ! जनमेजय! प्रहार करने वालों में रेष्ठ और कभी परास्त न होने वाले कुन्ती पुत्र अर्जुन ने उपयुक्त बातें कहकर विराट कुमार उत्तर को दो घड़ी तक भली-भाँति समझाया बुझाया। तत्पश्चात् युद्ध की कामना से रहित, भय से व्याकुल और भागने के लिये छटपटाते हुए उत्तर को उन्होंने रथ पर चढ़ाया। अर्जुन अपने गाण्डीव धनुष को लाने के लिये पुनः उस शमीवृक्ष की ओर गये। उन्होंने उत्तर को समझा बुझाकर सारथि बनने के लिये राजी कर लिया था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर दिशा की ओर से गौओं के अपहरण के प्रसंग में राजकुमार उत्तर के आश्वासन से सम्बन्ध रखने वाला अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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