महाभारत विराट पर्व अध्याय 1 श्लोक 19-28

प्रथम (1) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 19- 28 का हिन्दी अनुवाद


किंतु कुरुनन्दनो! तुम लोग यह तो बताओ कि हम मत्स्यराज के पास पहुँचकर किन-किन कार्यों का भार सँभाल सकेंगे?

अर्जुन ने पूछा- नरदेव! आप उनके राष्ट्र में किस प्रकार कार्य करेंगे। महात्मन्! विराटनगर में कौन-सा कर्म करने से आपको प्रसन्नता होगी? राजन्! आपका स्वभाव कोमल है। आप उदार, लज्जाशील, धर्मपरायण तथा सम्यपराक्रमी हैं, तथापि विपत्ति में पड़ गये हैं। पाण्डुनन्दन! आप वहाँ क्या करेंगे? राजन्! साधारण मनुष्यों की भाँति आपको किसी प्रकार के दुःख का अनुभव हो, यह उचित नहीं है; अतः इस घोर आपत्ति में पड़कर आप कैसे इसके पार होंगे?

युधिष्ठिर ने कहा- नरश्रेष्ठ कुरुनन्दनो! मैं राजा विराट के यहाँ चलकर जो कार्य करूँगा, वह बताता हूँ; सुनो। मैं पासा खेलने की विद्या जानता हूँ और यह खेल मुझे प्रिय भी है, अतः मैं कंक[1] नामक ब्राह्मण बनकर महामना राजा विराट की राजसभा का एक सदस्य हो जाऊँगा और वैदूर्य मणि के समान हरी, सुवर्ण के समान पीली तथा हाथी दाँत की बनी हुई काली और लाल रंग की मनोहर गोटियों को चमकीले बिन्दुओं से युक्त पासों के अनुसार चलाता रहूँगा। मैं राजा विराट को उनके मन्त्रियों तथा बन्धु-बान्धवों सहित पासों के खेल से प्रसन्न करता रहूँगा। इस रूप में मुझे कोई पहचान न सकेगा और मैं उन मत्स्य नरेश को भलीभाँति संतुष्ट रक्खूंगा। यदि वे राजा मुझसे पूछेंगे कि आप कौन हैं, तो मैं उन्हें बताऊँगा कि मैं पहले महाराज युधिष्ठिर का प्राणों के समान प्रिय सखा था। इस प्रकार मैंने तुम लोगों को बता दिया कि विराटनगर में मैं किस प्रकार रहूँगा।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार अज्ञातवास में अपने द्वारा किये जाने वाले कार्य को बतलाकर युधिष्ठिर भीमसेन से बोले। युधिष्ठिर ने पूछा- भीमसेन! तुम मत्स्य देश में किस प्रकार कोई कार्य कर सकोगे? तुमने गन्धमादन पर्वत पर क्रोध से सदा लाल आँखें किये रहने वाले क्रोधवश नामक यक्षों और महापराक्रमी राक्षसों का वध करके पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को बहुत-से कमल लाकर दिये थे। शत्रुहन्ता भीम! ब्राह्मण परिवार की रक्षा के लिये तुमने भयानक आकृति वाले नरभक्षी राक्षसराज बक को भी मार डाला था और इस प्रकार एकचक्रा नगरी को भयरहित एवं कल्याणयुक्त कनाया था। महाबाहो! तुमने महावीर हिडिम्ब और राक्षस किर्मीर को मारकर वन को निष्कण्टक कनाया था। संकट में पड़ी हुई मनोहर हास्य वाली द्रौपदी को भी तुमने जटासुर का वध करके छुड़ाया था। तात भीमसेन! तुम अत्यन्त बलवान् एव अमर्षशाली हो। राजा विराट के यहाँ कौन-सा कार्य करके तुम प्रसन्नतापूर्वक रह सकोगे-यह बतलाओ।


इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में युधिष्ठिर आदि की परस्पर मन्त्रणा से सम्बन्ध रखने वाला पहला अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विश्वकोष के अनुसार 'कंक' शब्द यमराज का वाचक है। यमराज का ही दूसरा नाम धर्म है और वे ही युधिष्ठिर रूप में अवतीर्ण हुए थे। 'आत्मा वै जायतै पुत्र:' इस उक्ति के अनुसार भी धर्म एवं धर्मपुत्र युधिष्ठिर में कोई अंतर नहीं है। यह समझ कर ही अपनी सत्यवादिता की रक्षा करते हुए युधिष्ठिर ने कंक नाम से अपना परिचय दिया। इसके सिवा उन्होंने जो अपने को युधिष्ठिर का प्राणों के समान प्रिय सखा बताया, वह भी असत्य नहीं है। युधिष्ठिर नामक शरीर को ही यहाँ युधिष्ठिर समझना चाहिए। आत्मा की सत्ता से ही शरीर का संचालन होता है। अत: आत्मा उसके साथ रहने के कारण उसका सखा है। आत्मा सबसे बढ़कर प्रिय है ही, अत: यहाँ युधिष्ठिर का आत्मा युधिष्ठिर-शरीर का प्रिय सखा कहा गया है।

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