महाभारत वन पर्व अध्याय 99 श्लोक 17-32

एकोनशततम (99) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनशततमोअध्‍याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद


उस रथ में विराव और सुराव नामक दो घोड़े जुते हुए थे। वे धन सहित राजाओं तथा अगस्‍त्‍य मुनि को शीघ्र ही मानो पलक मारते ही अगस्‍त्‍याश्रम की ओर ले भागे। उस समय इल्‍वल असुर ने अगस्‍त्‍य मुनि के पीछे जाकर उनको मारने की इच्‍छा की, परंतु महातेजस्‍वी अगस्‍त्‍य मुनि ने उस महादैत्‍य इल्‍वल को हुंकार से ही भस्‍म कर दिया। तदनन्‍तर उन वायु के समान वेग वाले घोड़ों ने उन सबको मुनि के आश्रम पर पहुँचा दिया। भरतनन्‍दन! फिर अगस्‍त्‍य जी की आज्ञा ले वे राजर्षिगण अपनी-अपनी राजधानी को चले गये और महर्षि ने लोपामुद्रा की सभी इच्‍छाएँ पूर्ण कीं।

लोपामुद्रा बोली- 'भगवन् मेरी जो-जो अभिलाषा थी, वह सब आपने पूर्ण कर दी। अब मुझसे एक अत्‍यन्‍त शक्तिशाली पुत्र उत्‍पन्‍न कीजिए।' अगस्‍त्‍य ने कहा- 'शोभामयी कल्‍याणी! तुम्‍हारे सदव्‍यवहार से मैं बहुत संतुष्‍ट हूँ। पुत्र के सम्‍बन्‍ध में तुम्‍हारे सामने एक विचार उपस्थित करता हूँ, सुनो। क्‍या तुम्‍हारे गर्भ से एक हजार या एक सौ पुत्र उत्‍पन्‍न हों, जो दस के ही समान हों? अथवा दस ही पुत्र हों, जो सौ पुत्रों की समानता करने वाले हों? अथवा एक ही पुत्र हो, जो हाजारों को जीतने वाला हो?

लोपामुद्रा बोली- 'तपोधन! मुझे सहस्रों की समानता करने वाला एक ही श्रेष्‍ठ पुत्र प्राप्‍त हो, क्‍योंकि बहुत-से दुष्‍ट पुत्रों की अपेक्षा एक ही विद्वान एवं श्रेष्‍ठ पुत्र उत्तम माना गया है।'

लोमश जी कहते हैं- राजन् तब ‘तथास्‍तु’ कहकर श्रद्धालु महात्मा अगस्त्य ने अपनी शील स्वभाव वाली श्रद्धालु पत्‍नी लोपामुद्रा के साथ यथासमय समागम किया। गर्भाधान करके अगस्‍त्‍य जी फिर वन में ही चले गये। उनके वन में चले जाने पर वह गर्भ सात वर्षों तक माता के पेट में ही पलता और बढ़ता रहा। भारत! सात वर्ष बीतने पर अपने तेज और प्रभाव से प्रज्‍वजित होता हुआ वह गर्भ उदर से बाहर निकला। वही महाविद्वान दृढस्‍यु के नाम से विख्‍यात हुआ। महर्षि का वह महातपस्‍वी और तेजस्‍वी पुत्र जन्‍मकाल से ही अंग और उपनिषदों सहित सम्‍पूर्ण वेदों का स्‍वाध्‍याय करता जान पड़ा। दृढस्‍यु ब्राह्मणों में महान् माने गये।

पिता के घर में रहते हुए तेजस्‍वी दृढस्‍यु बाल्‍यकाल से ही इघ्‍म (समिधा) का भार वहन करके लाने लगे। अत: ‘इघ्‍मवाह’ नाम से विख्‍यात हो गये। अपने पुत्र को स्‍वाध्‍याय और समिधानयन के कार्य में संलग्‍न देख महर्षि अगस्‍त्‍य उस समय बहुत प्रसन्‍न हुए। भारत! इस प्रकार अगस्‍त्‍य जी ने उत्तम संतान उत्‍पन्‍न की। राजन् तदनन्‍तर उनके पितरों ने मनोवां‍छित लोक प्राप्‍त कर लिये। उसके बाद से यह स्‍थान इस पृथ्‍वी पर अगस्‍त्याश्रम के नाम से ख्यिात हो गया। वातापि प्रह्लाद के गोत्र में उत्‍पन्‍न हुआ था, जिसे अगस्‍त्‍य जी ने इस प्रकार शान्‍त कर दिया। राजन्! यह उन्‍हीं का रमणीय गुणों से युक्‍त आश्रम है। इसके समीप यह वही देवगन्‍धर्वसेवित पुण्‍यसलिला भागीरथी है, जो आकाश में वायु की प्रेरणा से फहराने वाले श्‍वेत पताका के समान सुशोभित हो रही है। यह क्रमश: नीचे-नीचे शिखरों पर गिरती हुई सदा तीव्र गति से बहती है और शिलाखण्‍डों के नीचे इस प्रकार समायी जाती है, मानो भयभीत सर्पिणी बिल में घुसी जा रही हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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