अष्टसप्ततितम (78) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
महाभारत: वन पर्व: अष्टसप्ततितम अध्याय: श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार सत्यपराक्रमी राजा नल ने अपने भाई पुष्कर को सान्तवना दे बार-बार हृदय से लगाकर उसकी राजधानी को भेज दिया। राजन्! निषधराज के इस प्रकार सान्त्वना देने पर पुष्कर ने पुण्यश्लोक नल को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- ‘पृथ्वीनाथ! आप जो मुझे प्राण और निवास स्थान भी वापस दे रहे हैं, इससे आपकी अक्षय कीर्ति बनी रहे। आप सौ वर्षों तक जीयें और सुखी रहें।' नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर! राजा नल के द्वारा इस प्रकार सत्कार पाकर पुष्कर एक मास तक वहाँ टिका रहा और फिर आत्मीयजनों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपनी राजधानी को चला गया। उसके साथ विशाल सेना और विनयशील सेवक भी थे। वह शरीर से सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था। पुष्कर को धन-वित्त के साथ सकुशल घर भेजकर श्रीमान राजा नल ने अपने अत्यंत शोभासम्पन्न नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके निषध नरेश ने पुरवासियों को सान्त्वना दी। नगर और जनपद के लोग बड़े प्रसन्न हुए। उनके शरीर में रोमांच हो गया। मंत्री आदि सब लोगों ने हाथ जोड़कर कहा- ‘महाराज! आज हम नगर और जनपद के निवासी संतोष से सांस ले सके हैं। जैसे देवता देवराज इन्द्र की सेवा में उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार अब हमें पुनः आपकी उपासना करने-आपके पास बैठने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है’।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में पुष्कर को हराकर राजा नल के अपने नगर में आने से सम्बन्ध रखने वाला अठहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज