महाभारत वन पर्व अध्याय 68 श्लोक 17-33

अष्टषष्टितम (68) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


'यह रूप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न है। श्रृंगार धारण करने के योग्य होने पर भी यह श्रृंगारशुन्‍य है, मानो आकाश में मेघों की काली घटा से आवृत नूतन चन्द्रकला हो। यह राजकन्या प्रिय कामभोगों से वंचित है। अपने बन्धुजनों से बिछुड़ी हुई है और पति के दर्शन की इच्छा से अपने (दीन-दुर्बल) शरीर को धारण कर रही है। वास्तव में पति ही नारी का सबसे श्रेष्ठ आभूषण है। उसके होने से यह बिना आभूषणों के सुशोभित होती है; परन्तु यह पतिरूप आभूषण से रहित होने के कारण शोभामयी होकर भी सुशोभित नहीं हो रही है। इससे विलग होकर राजा नल यदि अपने शरीर को धारण करते हैं और शोक से शिथिल नहीं हो रहे हैं तो यह समझना चाहिये कि वे अत्यन्त दुष्कर कर्म कर रहे हैं। काले-काले केशों ओर कमल के समान विशाल नेत्रों से सुशोभित इस राजकन्याको, जो सदा सुख भोगने के ही योग्य है, दुःखित देखकर मेरे मन में भी बड़ी व्यथा हो रही है। जैसे रोहिणी चन्द्रमा के संयोग से सुखी होती है, उसी प्रकार यह शुभलक्षणा साध्वी राजकुमारी अपने पति के समागम से (संतुष्ट) कब इस दुःख के समुद्र से पार हो सकेगी।

जैसे कोई राजा एक बार अपने राज्य से च्युत होकर फिर उसी राज्यभूमि को प्राप्त कर लेने पर अत्यन्त आनन्द का अनुभव करता है, उसी प्रकार पुनः इसके मिल जाने पर निषध नरेश नल को निश्चय ही बड़ी प्रशंसा होगी। विदर्भकुमारी दमयन्ती राजा नल के समान शील और अवस्था से युक्त है, उन्हीं के तुल्य उत्तम कुल से सुशोभित है। निषध नरेश नल विदर्भकुमारी के योग्य हैं और यह कजरारे नेत्रों वाली वैदर्भी नल के योग्य है। राजा नल का पराक्रम और धैर्य असीम है। उनकी यह पत्नी पतिदर्शन के लिये लालायित और उत्कण्ठित है, अतः मुझे इससे मिलकर इसे आश्वासन देना चाहिये। इस पूर्णचन्द्रमुखी राजकुमारी ने पहले कभी दुःख को नहीं देखा था। इस समय दुःख से आतुर हो पति के ध्यान में परायण है, अतः मैं इसे आश्वासन देने का विचार कर रहा हूँ।'

बृहदश्व मुनि कहते हैं- युधिष्ठिर! इस प्रकार भाँति-भाँति के कारणों और लक्षणों से दमयन्ती को पहचानकर और अपने कर्तव्य के विषय का विचार करके सुदेव ब्राह्मण उसके समीप गये और इस प्रकार बोले- ‘विदर्भ राजकुमारी! मैं तुम्हारे भाई का प्रिय सखा सुदेव हूँ। महाराज भीम की आज्ञा से तुम्हारी खोज करने के लिये यहाँ आया हूँ। निषध नरेश की महारानी! तुम्हारे पिता, माता और भाई सब सकुशल हैं और कुण्डिनपुर में जो तुम्हारे बालक हैं, वे भी कुशल हैं। तुम्हारे बन्धु-बान्धव तुम्हारी ही चिन्ता से मृतक-तुल्य हो रहे हैं। (तुम्हारी खोज करने के लिये) सैकड़ों ब्राह्मण इस पृथ्वी पर घूम रहे हैं’।

बृहदश्व मुनि कहते हैं- युधिष्ठिर! सुदेव को पहचानकर दमयन्ती ने क्रमशः अपने सभी सगे-सम्बन्धियों का कुशल-समाचार पूछा। राजन्! अपने भाई के प्रति मित्र द्विजश्रेष्ठ सुदेव को सहसा आया देख दमयन्ती शोक से व्याकुल हो फूट-फूटकर रोने लगी। भारत! तदनन्तर उसे सुदेव के साथ एकान्त में बात करती तथा रोती देख सुनन्दा शोक से व्याकुल हो उठी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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