महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 17-34

पंचषष्टितम (65) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद


तीसरा कहता था- ‘भाई! इस धन पर सबका समान अधिकार है, मेरी यह बात झूठी नहीं है’। कोई कहता- ‘ऐ कायरो! मैं फिर तुमसे बात करूंगा, अभी अपनी रक्षा की चिंता करो।' इस तरह की बातें करते हुए सब लोग भय से भाग रहे थे। इस प्रकार जब वहाँ भयानक नर-संहार हो रहा था, उसी समय दमयन्ती भी जाग उठी। उसका हृदय भय से संत्रस्त हो उठा। वहाँ उसने वह महासंहार अपनी आंखों से देखा, जो सब लोगों के लिये भयंकर था। उसने ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं देखी थी। वह सब देखकर वह कमलनयनी बाला भय से व्याकुल हो उठी। उसको कहीं से कोई सान्त्वना नहीं मिल रही थी। वह इस प्रकार स्तब्ध हो रही थी, मानो धरती से सट गयी हो। तदनन्तर वह किसी प्रकार उठकर खड़ी हुई। दल के जो लोग संकट से मुक्त हो आघात से बचे हुए थे, वे सब एकत्र हो कहने लगे कि ‘यह हमारे किस कर्म का फल है? निश्चय ही हमने महायशस्वी मणिभद्र का पूजन नहीं किया है। इसी प्रकार हमने श्रीमहान् यक्षराज कुबेर की भी पूजा नहीं की है अथवा विघ्नकर्ता विनायकों की भी पहले पूजा नहीं कर ली थी अथवा हमने पहले जो-जो शकुन देखे थे, उसका विपरित फल है। यदि हमारे ग्रह विपरीत न होते तो और किस हेतु से यह संकट हमारे ऊपर कैसे आ सकता है?'

दूसरे लोग जो अपने कुटुम्बीजनों और धन के विनाश से दीन हो रहे थे, वे इस प्रकार कहने लगे- ‘आज हमारे विशाल जनसमूह के साथ वह जो उन्मत्त जैसी दिखायी देने वाली नारी आ गयी थी, वह विकराल आकार वाली राक्षसी थी तो भी अलौकिक सुन्दर रूप धारण करके हमारे दल में घुस गयी थी। उसी ने पहले से ही यह अत्यन्त भयंकर माया फैला रखी थी। निश्चय ही वह राक्षसी, यक्षी अथवा भयंकर पिशाची थी-इसमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं कि यह सारा पापपूर्ण कृत्य उसी का किया हुआ है। उसने हमें अनेक प्रकार का दुःख दिया और प्रायः सारे दल का विनाश कर दिया। वह पापिनी समूचे सार्थ के लिये अवश्य ही कृत्या बनकर आयी थी। यदि हम उसे देख लेंगे तो ढेलों से, धूल और तिलकों से, लकड़ियों और मुक्कों से भी अवश्य मार डालेंगे।

उनका वह अत्यन्त भयंकर वचन सुनकर दमयन्ती लज्जा से गड़ गयी भय से व्याकुल हो उठी। उनके पापपूर्ण संकल्प के संघटित होने की आशंका करके वह उसी ओर भाग गयी, जहाँ घना जंगल था। वहाँ जाकर अपनी इस परिस्थितियों पर विचार करके वह विलाप करने लगी- ‘अहो! मुझ पर विधाता का अत्यन्त भयानक और महान् कोप है, जिससे मुझे कहीं भी कुशल-क्षेम की प्राप्ति नहीं होती। न जाने, यह हमारे किस कर्म का फल है? मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी किसी का थोड़ा-सा भी अमंगल किया हो, इसकी याद नहीं आती, फिर यह मेरे किस कर्म का फल मिल रहा है? निश्चय ही यह मेरे दूसरे जन्मों के किये हुए पाप का महान् फल प्राप्त हुआ है, जिससे मैं इस अनन्त कष्ट में पड़ गयी हूँ। मेरे स्वामी के राज्य का अपहरण हुआ, उन्हें आत्मीयजन से ही पराजित होना पड़ा, मेरा अपने पतिदेव से वियोग हुआ और अपनी संतानों के दर्शन से भी वंचित हो गयी हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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