महाभारत वन पर्व अध्याय 4 श्लोक 13-22

चतुर्थ (4) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद

  • यदि आपका पुत्र दुर्योधन प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवों के साथ राज्य बनाने की बात मान ले तो आपको पश्चाताप नहीं होगा, प्रसन्नता ही प्राप्त होगी। यदि दुर्योधन आपकी बात न माने तो समस्त कुल को सुख पहुँचाने के लिए आप उस पुत्र पर नियन्त्रण कीजिये। (13)
  • इस प्रकार अहितकारी दुर्योधन को काबू में करके आप पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को राज्य पर अभिषिक्त कर दीजिये क्योंकि वे अजातशत्रु हैं। उनका किसी से राग-द्वेष नहीं है। राजन! वे ही पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन करेंगे। (14)
  • महाराज यदि ऐसा हुआ तो! भूमण्डल के समसत राजा वैश्यों की भाँति उपहार ले, हम कौरवों की सेवा में शीघ्र उपस्थित होंगे। राजराजेश्वर! दुर्योधन, शकुनि तथा सूतपुत्र कर्ण प्रेमपूर्वक पाण्डवों का अपनावें। (15)
  • दुःशासन भरी सभा में भीमसेन तथा द्रौपदी से क्षमा माँगे और आप युधिष्ठिर को भलीभाँति सान्त्वना दे सम्मानपूर्वक इस राज्य पर बिठा दीजिये। (16)
  • कुरुराज! आपने हित की बात पूछी है तो मैं इसके सिवा और क्या बताऊँ। यह सब कर लेने पर आप कृत-कृत्य हो जायँगे। (17)
  • धृतराष्ट्र ने पूछा- विदुर! तुमने यहाँ सभा में पाण्डवों के तथा मेरे विषय में जो बात कही है, वह पाण्डवों लिए तो हितकर है, पर मेरे पुत्रों के लिए अहितकारक है, अतः यह सब मेरा मन स्वीकार नहीं करता है। (18)
  • इस समय तुम जो कुछ कह रहे हो इससे यह भलीभाँति निश्चय होता है कि तुम पाण्डवों के हित के लिए ही यहाँ आये थे। तुम्हारे आज के ही व्यवहार से मैं समझ गया कि तुम मेरे हितैषी नहीं हो। मैं पाण्डवों के लिए अपने पुत्रों को कैसे त्याग दूँ। (19)
  • इसमें संदेह नहीं कि पाण्डव मेरे पुत्र हैं, पर दुर्योधन साक्षात मेरे शरीर से उत्‍पन्‍न हुआ है। समता की ओर दृष्टि रखते हुए भी कौन किसको ऐसी बातें कहेगा कि तुम दूसरे के हित के लिये अपने शरीर का त्याग कर दो। (20)
  • विदुर! मैं तुम्हारा अधिक सम्मान करता हूँ, किन्तु तुम मुझे कुटिलतापूर्ण सलाह दे रहे हो। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। कुलटा स्त्री को कितनी ही सांत्वना दी जाय, वह स्वामी को त्याग ही देती है। (21)
  • वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र सहसा उठकर महल के भीतर चले गये। तब विदुरजी ने यह कहकर कि अब इस कुल का नाश अवश्यम्भावी है, जहाँ पाण्डव थे, वहाँ चले गये। (22)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अन्तर्गत अरण्यपर्व में विदुरवाक्यप्रत्याख्यान विषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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