महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 70-86

तृतीय (3) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 70-86 का हिन्दी अनुवाद

  • वैशम्पायनजी कहते हैं- महाराज! जब युधिष्ठिर ने लोकभावन भगवान भास्कर का इस प्रकार स्तवन किया, तब दिवाकर ने प्रसन्न होकर उन पाण्डु कुमारों को दर्शन दिया। उस समय उनके श्री अंग प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित हो रहे थे। (70)
  • भगवान सूय बोले- धर्मराज! तुम जो कुछ चाहते होगा, वह सब तुम्हें प्राप्त होगा। मैं बारह वर्षों तक तुम्हें अन्न प्रदान करूँगा। (71)
  • राजन! यह मेरी दी हुई ताँबे की बटलोई लो। सुवत! तुम्हारे रसोई घर में इस पात्र द्वारा फल‌, मूल, भोजन करने के योग्य अन्य पदार्थ तथा साग आदि जो चार प्रकार की भोजन-सामग्री तैयार होगी, वह तब तक अक्षय बनी रहेगी, जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी। (72-73)
  • आज से चौदहवें वर्ष में तुम अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लोगे। (73½)
  • वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन इतना कहकर भगवान सूर्य वहीं अंर्तधान हो गये। (74)
  • जो कोई अन्य पुरुष भी मन को संयम में रखकर चित्तवृत्तियों को एकाग्र करके इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वर भी माँगे तो भगवान सूर्य उसकी मनवांछित वस्तु को दे सकते हैं। (75)
  • जो प्रतिदिन इस स्तोत्र को धारण करता अथवा बार-बार सुनता है, वह यदि पुत्रार्थी हो तो पुत्र पाता है, धन चाहता हो तो धन पाता है, विद्या की अभिलाषा रखता हो तो उसे विद्या प्राप्त होती है और पत्नी की इच्छा रखने वाले पुरुष को पत्नी सुलभ होती है। (76)
  • स्त्री हो या पुरुष यदि दोनों संध्याओं के समय इस स्तोत्र का पाठ करता है, तो आपत्ति में पड़कर भी उससे मुक्त हो जाता है। बन्धन में पड़ा हुआ मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। (77)
  • यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्माजी ने महात्मा इन्द्र को दी, इन्द्र ने नारद जी से और नारद जी ने धौम्य से इसे प्राप्त किया। धौम्य से इसका उपदेश पाकर राजा युधिष्ठिर ने अपनी सब कामनाएँ प्राप्त कर लीं। (78)
  • जो इसका अनुष्ठान करता है, वह सदा संग्राम में विजयी होता है, बहुत धन पाता है, सब पापों से मुक्त होता है और अन्त में सूर्यलोक को जाता है। (79)
  • वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! वर पाकर धर्म के ज्ञाता कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर गंगाजी के जल से बाहर निकले। उन्होंने धौम्य जी के दोनों चरण पकड़े और भाइयों को हृदय से लगा लिया। (80)
  • द्रौपदी ने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने चूल्हे पर बटलोई रखकर रसोई तैयार करायी। (81)
  • उसमें तैयार की हुई चार प्रकार की थोड़ी-सी भी रसोई उस पात्र के प्रभाव से बढ़ जाती और अक्षय हो जाती थी। उसी से वे बाह्यणों को भोजन कराने लगे। (82)
  • ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर अपने छेाटे भाईयों को भी कराने के पश्चात विघस अवशिष्ट अन्न को युधिष्ठिर सबसे पीछे खाते थे। (83)
  • युधिष्ठिर को भोजन को कर लेने पर द्रौपदी शेष अन्न स्वयं खाती थी। द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उस पात्र का अन्न समाप्त हो जाता था। इस प्रकार सूर्य से मनोवांछित वरों को पाकर उन्हीं के समान तेजस्वी प्रभावशाली राजा युधिष्ठिर ब्राह्मणों को नियमपूर्वक अन्न दान करने लगे। पुरोहितों को प्रणाम करके उत्तम तिथि, नक्षत्र एवं पर्वों पर विधि मन्त्र के प्रणाम के अनुसार उनके यज्ञ संबंधी कार्य करने लगे। (84-85)
  • तदनन्तर स्वस्तिवाचन कराकर ब्राह्यण समुदाय से घिरे हुए पाण्डव धौम्यजी के साथ काम्यक वन को चले गये। (86)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अन्तर्गत अरण्यपर्व में काम्यकवन प्रवेश विषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।। 3। ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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