एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: वन पर्व (कैरात पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 78-84 का हिन्दी अनुवाद
कल्याणकारी भगवन्! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। भगवन्! मैं आप ही के दर्शन की इच्छा लेकर इस महान् पर्वत पर आया हूँ। देवेश्वर! यह शैल-शिखर तपस्वियों का उत्तम आश्रय तथा आपका प्रिय निवास स्थान है। प्रभो! सम्पूर्ण जगत् आपके चरणों में वन्दना करता है। मैं आपसे यह प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझ पर प्रसन्न हों। महादेव! अत्यन्त साहसवश मैंने जो आपके साथ यह युद्ध किया है, इसमें मेरा अपराध नहीं है। यह अनजान में मुझसे बन गया है। शंकर! मैं अब आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी उस धृष्टता को क्षमा करें। वैशम्पायन जी ने कहा- जनमेजय! तब महातेजस्वी भगवान् वृषभध्वज ने अर्जुन का सुन्दर हाथ पकड़कर उनसे हंसते हुए कहा- 'मैंने तुम्हारा अपराध पहले ही क्षमा कर दिया।' फिर उन्हें दोनों भुजाओं से खींचकर हृदय से लगाया और प्रसन्नचित्त हो वृष के चिह्न से अंकित ध्वजा धारण करने वाले भगवान् रुद्र ने पुनः कुन्तीकुमार को सान्त्वना देते हुए कहा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कैरातपर्व में महादेव जी की स्तुति सम्बन्ध रखने वाला उनतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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