एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: वन पर्व (कैरात पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन ने कहा- 'मैं गाण्डीव धनुष और अग्नि के समान तेजस्वी बाणों का आश्रय लेकर इस महान् वन में द्वितीय कार्तिकेय की भाँति (निर्भय) निवास करता हूँ। यह प्राणी हिंसक पशु का रूप धारण करके मुझे ही मारने के लिये यहाँ आया था, अतः इस भयंकर राक्षस को मैंने मार गिराया है।' किरातरूपधारी शिव बोले- 'मैंने अपने धनुष द्वारा छोड़े हुए बाणों से पहले ही इसे घायल कर दिया था। मेरे ही बाणों की चोट खाकर यह सदा के लिये सो रहा है और यमलोक में पहुँच गया। मैंने ही पहले इसे अपने बाणों का निशाना बनाया, अतः तुमसे पहले इस पर मेरा अधिकार स्थापित हो चुका था। मेरे ही तीव्र प्रहार से इस दानव को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा है। मन्दबुद्धे! तुम अपने बल के धमंड में आकर अपने दोष दूसरे पर नहीं मढ़ सकते। तुम्हें अपनी शक्ति पर बड़ा गर्व है। अतः अब तुम मेरे हाथ से जीवित नहीं बच सकते। धैर्यपूर्वक सामने खडे़ रहो, मैं वज्र के समान भयानक बाण छोडूंगा। तुम भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर मुझे जीतने का प्रयास करो। मेरे ऊपर अपने बाण छोड़ो।' किरात की वह बात सुनकर उस समय अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने बाणों से उस पर प्रहार आरम्भ किया। तब किरात ने प्रसन्नचित्त से अर्जुन के छोड़े हुए सभी बाणों को पकड़ लिया और कहा- ‘ओ मूर्ख! और बाण मार और बाण मार, इन मर्मभेदी नाराचों का प्रहार कर’। उसके ऐसा कहने पर अर्जुन ने सहसा बाणों की झड़ी लगा दी। तदनन्तर वे दोनों क्रोध में भरकर बारंबार सर्पाकार बाणों द्वारा एक-दूसरे को घायल करने लगे। उस समय उन दोनों की बड़ी शोभा होने लगी। तत्पश्चात् अर्जुन ने किरात पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ की; परन्तु भगवान् शंकर ने प्रसन्नचित्त से उन सब बाणों को ग्रहण कर लिया। पिनाकधारी शिव दो ही घड़ी में सारी बाण वर्षा को अपने में लीन करके पर्वत की भाँति अविचल भाव से खडे़ रहे। उनके शरीर पर तनिक भी चोट या क्षति नहीं पहुँची थी। अपनी की हुई सारी बाण वर्षा व्यर्थ किये हुए देख धनंजय को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह किरात को साधुवाद देने लगे और बोले- ‘अहो! हिमालय के शिखर पर निवास करने वाले इस किरात के अंग तो बड़े सुकुमार हैं, तो भी यह गाण्डीव धनुष के छूटे हुए बाणों को ग्रहण कर लेता है और तनिक भी व्याकुल नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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