महाभारत वन पर्व अध्याय 38 श्लोक 22-35

अष्टत्रिंश (38) अध्‍याय: वन पर्व (कैरात पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टत्रिंश अध्याय: श्लोक 22-35 का हिन्दी अनुवाद


उग्र तेजस्वी महामना अर्जुन वहाँ वन के रमणीय प्रदेशों में धूम-फिरकर बड़ी कठोर तपस्या में संलग्र हो गये। कुशा का ही चीर धारण किये तथा दण्ड और मृगचर्म से विभूषित अर्जुन पृथ्वी पर गिरे हुए सूखे पत्तों का ही भोजन के स्थान में उपयोग करते थे। एक मास तक वे तीन-तीन रात के बाद केवल फलाहार करके रहे। दूसरे मास को उन्होंने पहले की अपेक्षा दूने-दूने समय पर अर्थात् छः-छः रात के बाद फलाहार करके व्यतीत किया। तीसरा महीना पंद्रह-पंद्रह दिन में भोजन करके बिताया। चैथा महीना आने पर भरतश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन महाबाहु अर्जुन केवल वायु पीकर रहने लगे। वे दोनों भुजाएं ऊपर उठाये बिना किसी सहारे के पैर के अंगूठे के अग्रभाग के बल पर खडे़ रहे।

अमित तेजस्वी महात्मा अर्जुन के सिर की जटाएं नित्य स्नान करने के कारण विद्युत् और कमलों के समान हो गयी थीं। तदनन्तर भयंकर तपस्या में लगे हुए अर्जुन के विषय में कुछ निवेदन करने की इच्छा से वहाँ रहने वाले सभी महर्षि पिनाकधारी महादेव जी की सेवा में गये। उन्होंने महादेव जी को प्रणाम करके अर्जुन का वह तपरूप कर्म कह सुनाया। वे बोले- ‘भगवन्! ये महातेजस्वी कुन्तीपुत्र अर्जुन हिमालय के पृष्ठभाग में स्थित हो अपार एवं उग्र तपस्या में संलग्न हैं और सम्पूर्ण दिशाओं को धूमाच्छादित कर रहे हैं। देवेश्वर! वे क्या करना चाहते हैं, इस विषय में हम लोगों में से कोई कुछ नहीं जानता है। वे अपनी तपस्या के संताप से हम सब महर्षियों को संतप्त कर रहे हैं। अतः आप उन्हें तपस्या से सद्भावपूर्वक निवृत्त कीजिये।’

पवित्र चित्त वाले उन महर्षियों का यह वचन सुनकर भूतनाथ भगवान् शंकर इस प्रकार बोले। महादेव जी ने कहा- 'महर्षियो! तुम्हें अर्जुन के विषय में किसी प्रकार का विषाद करने की आवश्यकता नहीं है। तुरन्त आलस्यरहित हो शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक जैसे आये हो, वैसे ही लौट जाओ। अर्जुन के मन में जो संकल्प है, मैं उसे भलीभाँति जानता हूँ। उन्हें स्वर्गलोक की कोई इच्छा नहीं है, वे ऐश्वर्य तथा आयु भी नहीं चाहते। वे जो कुछ पाना चाहते हैं, वह सब मैं आज ही पूर्ण करूंगा।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- भगवान् शंकर का यह वचन सुनकर वे सत्यवादी महर्षि प्रसन्नचित्त हो फिर अपने आश्रमों को लौट गये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कैरातपर्व में महर्षियों तथा भगवान् शंकर के संवाद से सम्बन्ध रखने वाला अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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