महाभारत वन पर्व अध्याय 37 श्लोक 18-39

सप्तत्रिंश (37) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 18-39 का हिन्दी अनुवाद


धर्मराज की आज्ञा से देवराज इन्द्र का दर्शन करने की इच्छा मन में रखकर महाबाहु धनंजय ने अग्नि में आहुति दी और स्वर्ण मुद्राओं की दक्षिणा देकर ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया तथा गाण्डीव धनुष और दो महान् अक्षय तूणीर साथ ले, कवच, तलत्राण (जूते) तथा अगुलियों की रक्षा के लिये गोह के चमड़े का बना हुआ अगुलित्र धारण किया। इसके बाद ऊपर की ओर देख लंबी सांस खींचकर धृतराष्ट्र पुत्रों के वध के लिये महाबाहु अर्जुन धनुष हाथ में लिये वहाँ से प्रस्थित हुए।

कुन्तीनन्दन अर्जुन को वहाँ धनुष लिये जाते देख सिद्धों, ब्राह्मणों तथा अदृश्य भूतों ने कहा- 'कुन्तीकुमार! तुम अपने मन में जो-जो इच्छा रखते हो, वह सब तुम्हें शीघ्र प्राप्त हो।’ इसके बाद ब्राह्मणों ने अर्जुन को विजयसूचक आर्शीवाद देते हुए कहा- ‘कुन्तीपुत्र! तुम अपना अभीष्ट साधन करो, तुम्हें अवश्य विजय प्राप्त हो’।

शाल वृक्ष के समान कंधे और जांघों से सुशोभित वीर अर्जुन को इस प्रकार सब के चित्त को चुराकर प्रस्थान करते देख द्रौपदी इस प्रकार बोली। द्रौपदी ने कहा- 'कुन्तीकुमार महाबाहु धनंजय! आपके जन्म लेने के समय आर्या कुन्ती ने अपने मन में आपके लिये जो-जो इच्छाएं की थीं तथा आप स्वयं भी अपने हृदय में जो-जो मनोरथ रखते हों, वे सब आपको प्राप्त हों। हम लोगों में से कोई भी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न न हो। उन ब्राह्मणों को नमस्कार है, जिनका भिक्षा से ही निर्वाह हो जाता है। नाथ! मुझे सबसे बढ़कर दुःख इस बात से हुआ है कि उस पापी दुर्योधन ने राजाओं से भरी हुई सभा में मेरी ओर देखकर मुझे ‘गाय’ (अनेक पुरुषों के उपभोग में आने वाली) कहकर मेरा उपहास किया। उस दुःख से भी बढ़कर महान् कष्ट मुझे इस बात का हुआ कि उसने भरी सभा में मेरे प्रति बहुत सी अनुचित बाते कहीं। वीरवर! निश्चय ही आपके चले जाने के बाद आपके सभी भाई जागते समय आप ही की पराक्रमी चर्चा बार-बार करते हुए अपना मन बहलायेंगे। पार्थ! दीर्घकाल के लिये आपके प्रवासी हो जाने पर हमारा मन न तो भोगों में लगेगा और न धन में ही। इस जीवन में भी कोई रस नहीं रह जायेगा। आपके बिना हम वस्तुओं से संतोष नहीं पा सकेंगे। पार्थ! हम सबके सुख-दुःख, जीवन-मरण तथा राज्य-ऐश्वर्य आप पर ही निर्भर हैं। भरतकुलतिलक! कुन्तीकुमार! मैंने आपको विदा दी; आप कल्याण को प्राप्त हों। निष्पाप महाबली आर्यपुत्र! आप बलवानों से विरोध ने करें, यह मेरा अनुरोध है। विघ्न-बाधाओं से रहित हो विजय प्राप्ति के लिये शीघ्र यात्रा कीजिये। धाता और विधाता को नमस्कार है। आप कुशल और स्वस्थतापूर्वक प्रस्थान कीजिये। धनंजय! ह्री, श्री, कीर्ति, द्युति, पुष्टि, उमा, लक्ष्मी और सरस्वती-ये सब देवियां मार्ग में जाते समय आपकी रक्षा करें। आप बड़े भाई का आदर करने वाले हैं, उनकी आज्ञा के पालक हैं। भरतश्रेष्ठ मैं आपकी शांति के लिये वसु, रुद्र, आदित्य, मरुद्गण, विश्वदेव तथा साध्य देवताओं की शरण लेती हूँ। भारत! भौम, अंतरिक्ष तथा दिव्य भूतों से और दूसरे भी जो मार्ग में विघ्न डालने वाले प्राणी हैं, उन सबसे आपका कल्याण हो।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! ऐसी मंगलकामना करके यशस्विनी द्रौपदी चुप हो गयी। तदनन्तर पाण्डुनन्दन महाबाहु अर्जुन ने अपना सुन्दर धनुष हाथ में लेकर अपने सभी भाईयों और धौम्य मुनि को दाहिने करके वहाँ से प्रस्थान किया। महान् पराक्रमी और महाबली अर्जुन के यात्रा करते समय उनके मार्ग से समस्त प्राणी दूर हट जाते थे; क्योंकि वे इन्द्र से मिला देने वाली प्रतिस्मृति नामक योगविद्या से युक्त थे। परंतप अर्जुन तपस्वी महात्माओं द्वारा सेवित पर्वतों के मार्ग से होते हुए दिव्य, पवित्र तथा देवसेवित हिमालय पर्वत पर जा पहुँचे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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