महाभारत वन पर्व अध्याय 34 श्लोक 13-22

चतुस्त्रिंश (34) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद


फिर वहाँ हम लोगों का अंतिम बार निन्दनीय जूआ हुआ। उसमें हम सब लोग हार गये और घर छोड़कर वन में निकल आये। इस प्रकार हम कष्टप्रद वेष धारण करके कष्टदायक वनों और विभिन्न प्रदेशों में घूम रहे हैं। उधर दुर्योधन भी शांति की इच्छा न रखकर और भी क्रोध के वशीभूत हो गया है। उसने हमें तो कष्ट में डाल दिया और दूसरे समस्त कौरवों को जो उसके वंश में होकर उसी का अनुसरण करते रहे हैं, (देशशासक और दुर्गरक्षक आदि) को ऊंचे पदों पर प्रतिष्ठित कर दिया है। कौरव-सभा में साधु पुरुषों के समीप वैसी सन्धि का आश्रय लेकर यानि प्रतिज्ञा करके अब यहाँ राज्य के लिये उसे कौन तोड़े? धर्म का उल्लंघन करके पृथ्वी का शासन करना तो किसी श्रेष्ठ पुरुष के लिये मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायक है-ऐसा मेरा मत है।

वीर भीमसेन! द्यूत के समय जब तुमने मेरी दोनों बांहों को जला देने की इच्छा प्रकट की और अर्जुन ने तुम्हें रोका, उस समय तुम शत्रुओं पर आघात करने के लिये अपनी गदा पर हाथ फेरने लगे थे। यदि उसी समय तुमने शत्रुओं पर आघात कर दिया होता तो कितना अनर्थ हो जाता। तुम अपना पुरुषार्थ तो जानते ही थे। जब मैं पूवोक्त प्रकार की प्रतिज्ञा करने लगा, उससे पहले ही तुमने ऐसी बात क्यों नहीं कही? जब प्रतिज्ञा के अनुसार वनवास का समय स्वीकार कर लिया, तब पीछे चलकर इस समय क्यों मुझसे अत्यन्त कठोर बातें कहते हो? भीमसेन! मुझे इस बात का भी बड़ा दुःख है कि द्रौपदी को शत्रुओं द्वारा क्लेश दिया जा रहा था और हमने अपनी आंखों देखकर भी उसे चुपचाप सह लिया। जैसे कोई विष घोलकर पी ले और उसकी पीड़ा से कराहने लगे, वैसी ही वेदना इस समय मुझे हो रही है। भरतवंश के प्रमुख वीर! कौरव वीरों के बीच मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसे स्वीकार कर लेने के बाद अब इस समय आक्रमण नहीं किया जा सकता। जैसे बीज बोने वाला किसान अपनी खेती के फलों के पकने की बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार तुम ही उस समय की प्रतीक्षा करो जो हमारे लिये सुख की प्राप्ति कराने वाला है।

जब पहले शत्रु के द्वारा धोखा खाया हुआ वीर पुरुष उसे फूलता-फलता जानकर अपने पुरुषार्थ के द्वारा उसका मूलोच्छेद कर डालता है, तभी उस शत्रु के महान् गुणों का अपहरण कर लेता है और इस जगत् में सूखपूर्वक जीवित रहता है। यह वीर पुरुष लोक में सम्पूर्ण लक्ष्मी को प्राप्त कर लता है। मैं यह भी मानता हूँ कि सभी शत्रु उसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। फिर थोडे़ ही दिनों में उसके बहुत-से मित्र बन जाते हैं और जैसे देवता इन्द्र के सहारे जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार वे मित्रगण उस वीर की छत्रछाया में रहकर जीवन-निर्वाह करते हैं। किंतु भीमसेन! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो। मैं जीवन और अमरत्व की अपेक्षा भी धर्म को ही बढ़कर समझता हूँ। राज्य, पुत्र, यश और धन-ये सब के सब सत्य धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकते।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में युधिष्ठिर का वाक्य विषयक चौतीसवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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