एकत्रिंश (31) अध्याय: वन पर्व (अरण्य पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद
कल्याणी! जो सदा धर्म के विषय में रखने वाला है और सब प्रकार की आशंकाएँ छोडकर धर्म की ही शरण लेता है, वह परलोक में अक्षय अनन्त सुख का भागी होताहै अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जो मूढ़ मानव आर्ष-ग्रन्थों के प्रमाण की अवहेलना करके समस्त शास्त्रों के विपरीत आचरण करते हुए धर्म का पालन नहीं करता, वह जन्म-ज्न्मान्तरों में भी कभी कल्याण का भागी नहीं होता। भाविनि! जिसकी दृष्टि में ऋषियों के वचन और शिष्ट पुरुषों के आचार प्रमाण भूत नहीं हैं, उसके लिये न यह लोक है और न परलोक, यह सत्त्ववेत्ता महापुरुषों का निश्चय है। कृष्णे! सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा महर्षियों द्वारा प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषों द्वारा आचारित पुरातन धर्म पर शंका नहीं करनी चाहिये। द्रुपदकुमारी! जैसे समुद्र के पार जाने की इच्छा वाले वणिक् के लिये जहाज की आवश्यकता है, वैसे ही स्वर्ग में जाने वालों के लिये धर्माचरण ही जहाज है, दूसरा नहीं। साध्वी द्रौपदी! यदि धर्मपरायण पुरुषों द्वारा पालित धर्म निष्फल होता तो सम्पूर्ण जगत् असीम अन्धकार में निमग्न हो जाता। यदि कोई धर्म निष्फल होता तो धर्मात्मा पुरुष मोक्ष नहीं पाते, कोई विद्या की प्राप्ति में नहीं लगते, कोई भी प्रजोजन-सिद्धि के लिये प्रयत्न नहीं करते और सभी पशुओं-सा जीवन व्यतीत करते। यदि तप, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, स्वाध्याय, दान और सरलता आदि धर्म निष्फल होते तो पहले जो श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर पुरुष हुए हैं, ये धर्म का आचरण नहीं करते। यदि धार्मिक क्रियाओं का कुछ फल नहीं होता, वे सब निरी ठगविद्या होतीं तो ऋषि, देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस प्रभावशाली होते हुए भी किसलिये आदरपूर्वक धर्म का आचरण करते। कृष्णे! यहाँ धर्म का फल देने वाले ईश्वर अवश्य हैं, यह बात जानकर ही उन ऋषि आदिकों ने धर्म का आचरण किया है। धर्म ही सनातन श्रेय है। धर्म निष्फल नहीं होता। अधर्म भी अपना फल दिये बिना नहीं रहता। विद्या और तपस्या के भी फल देखे जाते हैं। कृष्णे! तुम अपने जन्म के प्रसिद्ध वृत्तान्त को ही स्मरण करो। तुम्हारा प्रतापी भाई धृष्टद्युम्न जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है, यह भी तुम जानती हो। पवित्र मुस्कान वाली द्रौपदी! इतना ही दृष्टान्त देना पर्याप्त है; धीर पुरुष कर्मो का फल पाता है और थोडे़ से फल से भी संतुष्ट हो जाता है। परन्तु बुद्धिहीन अज्ञानी मनुष्य बहुत पाकर भी संतुष्ट नहीं होते। उन्हें परलोक में धर्मजनित थोड़ा-सा भी सुख नहीं मिलता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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