दशाधिकत्रिशततम (310) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)
महाभारत: वन पर्व: दशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार कर्ण को (कवच और कुण्डल से) वंचित करके एवं संसार में उसका सुयश फैलाकर देवराज इन्द्र हँसते हुए स्वर्गलोक को चले गये। उन्हें मन-ही-मन यह विश्वास हो गया कि ‘मैंने पाण्डवों का कार्य पूरा कर दिया’। धृतराष्ट्र के पुत्रों ने जब यह सुना कि कर्ण को (कवच और कुण्डलों से) वंचित कर दिया गया तो वे सब अत्यन्त दीन से हो गये; उनका घमंड चूर-चूर सा हो गया। वन में रहने वाले कुन्तीपुत्रों ने जब सुना कि सूतपुत्र इस दशा में पहुँच गया है, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। जनमेजय ने पूछा- भगवन्! वे वीर पाण्डव उन दिनों कहाँ थे? उन्होंने वह प्रिय समाचार कैसे सुना और बारहवाँ वर्ष व्यतीत हो जाने पर क्या किया? ये सब बातें आप मुझे स्पष्ट रूप से बतायें। वैशम्पायन जी ने कहा- राजन्! द्रौपदी को पाकर तथा जयद्रथ को काम्यकवन से भगाकर ब्राह्मणों सहित समस्त पाण्डवों ने मार्कण्डेय जी के मुख से पुराण कथा और देवताओं तथा ऋषियों के विस्तृत चरित्र सुनते हुए इसे भी सुना था। इस प्रकार वनवास की पूरी अवधि बिताकर वे नरवीर पाण्डव अपने रथ, अनुचर, सूत तथा रयोइयों के साथ पुनः द्वैतवन में लौट आये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में कवच-कुण्डल दान विषयक तीन सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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