महाभारत वन पर्व अध्याय 306 श्लोक 18-28

षडधिकत्रिशततम (306) अध्‍याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षडधिकत्रिशततम ध्यायः 18-28 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


तुम्हारे मूर्ख पिता को भी जला दूँगा, जो तुम्हारे इस अन्याय को नहीं जानता है तथा जिसने तुम्हारे शील और सदाचार को जाने बिना ही मन्त्र का उपदेश दिया है, उस ब्राह्मण को भी अच्छी सीख दूँगा। भामिनी! ये इन्द्र आदि समस्त देवता आकाश में खड़े होकर मुसकराते हुए से मेरी ओर इस भाव से देख रहे हैं कि मैं तुम्हारे द्वारा कैसा ठगा गया? देखो न, इन देवताओं की ओर। मैंने तुम्हें पहले से ही दिव्य दृष्टि दे दी है, जिससे तुम मुझे देख सकी हो।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब राजकुमारी कुन्ती ने आकाश में अपने-अपने विमानों पर बैठे हुए सब देवताओं को देखा। जैसे सहस्रों किरणों से युक्त भगवान सूर्य अत्यन्त दीप्तिमान दिखायी देते हैं, उसी प्रकार वे सब देवता प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर बालिका कुन्ती को बड़ी लज्जा हुई। उस देवी ने भयभीत होकर सूर्यदेव से कहा- ‘किरणों के स्वामी दिवाकर! आप अपने विमान पर चले जाइये। छोटी बालिका होने के कारण मेरे द्वारा आपको बुलाने का यह दुःखदायक अपराध बन गया है। मेरे पिता-माता तथा अन्य गुरुजन ही मेरे इस शरीर को देने का अधिकार रखते हैं। मैं अपने धर्म का लोप नहीं करूँगी। स्त्रियों के सदाचार में अपने शरीर की पवित्रता को बनाये रखना ही प्रधान है और संसार में उसी की प्रशंसा की जाती है। प्रभो! प्रभाकर! मैंने अपने बाल-स्वभाव के कारण मन्त्र का बल जानने के लिये ही आपका आवाहन किया है। एक अनजान बालिका समझकर आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें’।

सूर्यदेव ने कहा- 'कुन्तीभोजकुमारी कुन्ती! बालिका समझकर ही मैं तुमसे इतनी अनुनय विनय करता हूँ। दूसरी कोई स्त्री मुझसे अनुनय का अवसर नहीं पा सकती। भीरु! तुम मुझे अपना शरीर अर्पण करो। ऐसा करने से ही तुम्हें शान्ति प्राप्त हो सकती है। निर्दोष अंगों वाली सुन्दरी! तुमने मन्त्र द्वारा मेरा आवाहन किया है; इस दशा में उस आवाहन को व्यर्थ करके तुमसे मिले बिना ही लौट जाना मेरे लिये उचित न होगा। भीरु! यदि मैं इसी तरह लौटूँगा, तो जगत् में मेरा उपहास होगा। शुभे! सम्पूर्ण देवताओं की दृष्टि में भी मुझे निन्दनीय बनना पड़ेगा। अतः तुम मेरे साथ समागम करो। तुम मेरे ही समान पुत्र पाओगी और समस्त संसार में (अन्य स्त्रियों से) विशिष्ट समझी जाओगी; इसमें संशय नहीं है।'


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में सूर्य का आवाहन विषयक तीन सौ छःवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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