पन्चाधिकत्रिशततम (305) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)
महाभारत: वन पर्व: पन्चाधिकत्रिशततमोऽध्यायः 18-23 श्लोक का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! साध्वी पृथा दूसरी बार उन श्रेष्ठ ब्राह्मण की बात टाल न सकी; क्योंकि वैसा करने पर उसे उनके शाप का भय था। राजन्! तब ब्राह्मण ने निर्दोष अंगों वाली कुन्ती को उस मन्त्रसमूह का उपदेश दिया, जो अथर्ववेदीय उपनिषद् में प्रसिद्ध है। राजेनद्र! पृथा को वह मन्त्र देकर ब्राह्मण ने राजा कुन्तीभोज से कहा- 'राजन्! मैं तुम्हारे घर में तुम्हारी कन्या द्वारा सदा समादृत और संतुष्ट होकर बड़े सुख से रहा हूँ। अब हम अपनी कार्यसिद्धि के लिये यहाँ से जायेंगे।’ ऐसा कहकर वे ब्राह्मण वहीं अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मण को अन्तर्हित हुआ देख उस समय राजा को अड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने अपनी पुत्री का विशेष आदर-सत्कार किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में पृथा को मन्त्र की प्राप्ति विषयक तीन सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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