महाभारत वन पर्व अध्याय 282 श्लोक 18-36

द्वयशीत्यधिकद्वशततम (282) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः 18-36 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


मैंने सब दिशाओं में सभी विनयशील वानरों को भेज दिया है और उन सबके लिये एक महीने के अंदर लौट आने का समय निश्चित कर दिया है। वीर! वे सब लोग वन, पर्वत, पुर, ग्राम, नगर तथा आकरों सहित समुद्रवसना इस सारी पृथ्वी पर सीता की खोज करेंगे। वह एक मास, जिसके समाप्त होने तक वानरों को लौट आना है, पाँच रात में पूरा हो जायेगा। तत्पश्चात् आप श्रीरामचन्द्र जी के साथ सीता का अत्यन्त प्रिय समाचार सुनेंगे’।

बुद्धिमान नावरराज सुग्रीव के ऐसा कहने पर उदार हृदय वाले लक्ष्मण ने रोष त्यागकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। तत्पश्चात वे सुग्रीव को साथ लेकर माल्यवान् पर्वत के पृष्ठ भाग में रहने वाले श्रीरामचन्द्र जी के पास गये। वहाँ उन्होंने बताया कि सीता का अनुसंधान कार्य आरम्भ हो गया है। इसके बाद मास पूर्ण होने पर तीन दिशाओं की खोज करके सहस्रों वानर प्रमुख वहाँ आये। केवल वे ही नहीं आये, जो दक्षिण दिशा में पता लगाने गये थे। आये हुए वानरों ने श्रीरामचन्द्र जी को बताया कि समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी हमने देख डाली, परंतु कहीं भी सीता अथवा रावण का दर्शन नहीं हुआ। जो प्रमुख वानर दक्षिण दिशा की ओर गये थे, उन्हीं से सीता का वास्तविक समाचार मिलने की आशा बँधी हुई थी, इसीलिये व्यथित होने पर भी श्रीरामचन्द्र जी अपने प्राणों को धारण किये रहे।

दो मास व्यतीत हो जाने पर कुछ वानर बड़ी उतावली के साथ सुग्रीव के पास आये और इस प्रकार कहने लगे- ‘वानरराज! बाली ने तथा आपने भी जिस समृद्धिशाली महान् मधुबन की रक्षा की थी, उसे पवननन्दन हनुमान जी (राजाज्ञा के बिना) अपने उपभोग में ला रहे हैं। राजन्! उनके साथ बालिपुत्र अंगद तथा अन्य सभी श्रेष्ठ वानर इस काम में भाग ले रहे हैं, जिन्हें आपने दक्षिण दिशा में सीता की खोज के लिये भेजा था’। उन वानरों के अनुचित बर्ताव का समाचार सुनकर सुग्रीव को यह विश्वास हो गया कि वे सब काम पूरा करके लौटे हैं; क्योंकि ऐसी धृष्टतापूर्ण चेष्टा उन्हीं सेवकों की होती है, जो अपने कार्य में सफल हो जाते हैं। बुद्धिमान वानरप्रवर सुग्रीव ने श्रीरामचन्द्र जी से अपना निश्चय बताया। श्रीरामचन्द्र जी ने भी अनुमान से यह मान लिया कि उन वानरों ने अवश्य ही मिथिलेशकुमारी सीता का दर्शन किया होगा। हनुमान् आदि श्रेष्ठ वानर विश्राम कर लेने के पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण के समीप बैठे हुए उस वानरराज सुग्रीव के पास गये।

युधिष्ठिर! हनुमान जी की चाल-ढाल और मुख की कांति देखकर श्रीरामचन्द्र जी को यह विश्वास हो गया कि इन्होंने सीता को देखा है। सफल मनोरथ हुए हनुमान आदि वानरों ने श्रीराम, सुग्रीव तथा लक्ष्मण को विधिपूर्वक प्रणाम किया। उस समय श्रीरामचन्द्र जी ने धनुष-बाण लेकर उन प्रणाम करते हुए वानरों से पूछा- ‘क्या तुम लोग सीता का अमृतमय समाचार सुनाकर मुझे जीवनदान दोगे? क्या तुम लोगों को अपने कार्य में सफलता मिली है? क्या मैं युद्ध में शत्रुओं को मारकर जनकनन्दिनी सीता को साथ ले पुनः अयोध्या में रहकर राज्य करूँगा? विदेहनन्दिनी सीता को बिना छुड़ाये तथा समरभूमि में शत्रुओं का बिना संहार किये पत्नी को खोकर और अवधूत बनकर मैं जीवित नहीं रह सकता’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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