अष्टषष्टयधिकद्विशततम (268) अध्याय: वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व )
महाभारत: वन पर्व: अष्टषष्टयधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद
जब गाण्डीव धनुष धारण करने वाले अर्जुन शंखध्वनि के साथ दस्ताने की आवाज फैलाते हुए बार-बार बाण उठा-उठाकर तेरी छाती पर चोट करेंगे, उस समय तेरे मन की दशा कैसी होगी? (इसे भी सोच ले) अरे नीच! जब भीमसेन हाथ में गदा लिये दौड़ेंगे और माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव अमर्षजनित क्रोधरूपी विष उगलते हुए (तेरी सेना पर) सब दिशाओं से टूट पड़ेंगे, तब उन्हें देखकर तू दीर्घ काल तक संताप की आग में जलता रहेगा। यदि मैंने कभी मन से भी अपने परम पूजनीय पतियों का किसी तरह उल्लघंन नहीं किया हो, तो आज इस सत्य के प्रभाव से मैं देखूँगी कि पाण्डव तुझे जीतकर अपने वश में करके जमीन पर घसीट रहे हैं। मैं जानती हूँ कि तू नृशंस है, अत: मुझे बलपूर्वक खींचकर ले जायेगा, परंतु इससे मैं सम्भ्रम (घबराट) में नहीं पड़ सकूँगी। मैं अपने पति कुरुवंशी वीर पाण्डवों से शीघ्र ही मिलूंगी और उनके साथ पुन: इसी काम्यकवन में आकर रहूँगी।' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय जयद्रथ के साथी आश्रम में प्रविष्ट होकर द्रौपदी को पकड़ लेना चाहते थे। यह देख विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी उन्हें डाँटकर बोली- ‘खबरदार, कोई मेरे शरीर का स्पर्श न करे।’ फिर भयभीत होकर उसने अपने पुरोहित धौम्य मुनि को पुकारा। इतने में ही जयद्रथ ने आगे बढ़कर द्रौपदी की ओढ़नी का छोर पकड़ लिया, परंतु द्रौपदी ने उसे जोर का धक्का दिया। उसका धक्का लगते ही पापी जयद्रथ का शरीर जड़ से कटे हुए वृक्ष की भॉंति पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर बड़े वेग से उठकर उसने राजकुमारी द्रौपदी को पकड़ लिया। तब बार-बार लम्बी सांसें छोड़ती हुई द्रौपदी ने धौम्य मुनि के चरणों में प्रणाम किया, किंन्तु वह जयद्रथ के द्वारा खींची जाने के कारण बाध्य होकर उसके रथ पर बैठ गयी। तब धौम्य ने कहा- 'जयद्रथ! तू क्षत्रियों के प्राचीन धर्म पर दृष्टिपात कर। महारथी पाण्डवों को परास्त किये बिना इसे ले जाने का तुझे कोई अधिकार नहीं है।' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर धौम्य मुनि हरकर ले जायी जाती हुई यशस्विनी राजकुमारी द्रौपदी के पीछे-पीछे पैदल सेना के बीच में होकर चलने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में दो सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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