महाभारत वन पर्व अध्याय 252 श्लोक 20-40

द्विपच्‍चाशदधिकद्विशततम (252) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्विपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्‍ण के हाथों जो नरकासुर मारा गया है, उसकी आत्‍मा कर्ण के शरीर में घुस गयी है। वीरवर! वह (नरकासुर) उस वैर को याद करके श्रीकृष्‍ण और अर्जुन से युद्ध करेगा। महारथी कर्ण योद्धाओं में श्रेष्‍ठ और अपने पराक्रम पर गर्व रखने वाला है। वह रणभूमि में अर्जुन तथा आपके अन्‍य सब शत्रुओं पर अवश्‍य विजयी होगा। इस बात को समझकर वज्रधारी इन्द्र अर्जुन की रक्षा के लिये छल करके कर्ण के कुण्‍डल और कवच का अपहरण कर लेंगे। इसलिये हम लोगों ने भी एक लाख दैत्‍यों तथा राक्षसों को इस काम में लगा रक्‍खा है, जो संशप्‍तक नाम से विख्‍यात हैं। वे वीर अर्जुन को मार डालेंगे। अत: आप शोक न करें। नरेश्‍वर! आपको इस पृथ्‍वी का निष्‍कंटक राज्‍य भोगना है। अत: कुरुनन्‍दन! आप विषाद न करें। यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके नष्‍ट हो जाने पर हमारे पक्ष का ही नाश हो जायेगा। वीरवर! जाइये। अब आपको किसी तरह भी अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिए। देखिये, देवताओं ने पाण्डवों का आश्रय ले रक्‍खा है; परंतु हमारी गति तो सदा आप ही हैं।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन्! दुर्घर्ष वीर नृप-‍शिरोमणि दुर्योधन से ऐसा कहकर दैत्‍यों तथा दानवेश्वरों ने उसे पुत्र की भाँति हृदय से लगाया और आश्‍वासन देकर उसकी बुद्धि को स्थिर किया। भारत! तत्‍पश्रात् प्रिय वचन बोलकर उन्‍होंने दुर्योधन को जाने के लिये आज्ञा देते हुए कहा- ‘अब आप जाइये और शत्रुओं पर विजय प्राप्‍त कीजिये’। दैत्‍यों के विदा करने पर उसी कृत्‍या ने महाबाहु दुर्योधन को पुन: उसी स्‍थान पर पहुँचा दिया, जहाँ वह पहले आमरण उपवास के लिये बैठा था। वीर राजा दुर्योधन को वहाँ रखकर कृत्‍या ने उसके प्रति सम्‍मान प्रदर्शित किया और उससे आज्ञा लेकर जैसे आयी थी, वैसे ही अदृश्‍य हो गयी। भारत! कृत्‍या के चले जाने पर राजा दुर्योधन ने इन सारी बातों को स्‍वप्‍न समझा। दैत्‍यों के कहे हुए वचनों पर विचार करके दुर्बुद्धि दुर्योधन के मन में यह संकल्‍प उदित हुआ कि- ‘मैं युद्ध में पाण्‍डवों को जीत लूंगा’। दुर्योधन ने यह मान लिया कि संशप्‍तकगण तथा कर्ण ये शत्रुघाती अर्जुन के वध में लगे हुए हैं और इसके लिये वे समर्थ हैं।

जनमेजय! इस प्रकार उस खोटी बुद्धि वाले धृतराष्‍ट-पुत्र के मन में पाण्‍डवों पर विजय पाने की दृढ़ आशा हो गयी। इधर कर्ण भी नरकासुर की अन्‍तरात्‍मा से आविष्‍टचित्त होने के कारण अर्जुन का वध करने के लिये क्रूरतापूर्ण संकल्‍प करने लगा। इसी प्रकार राक्षसों से आविष्‍टचित्त होकर वे संशप्‍तक वीर भी रजोगुण और तमोगुण से आक्रान्‍त हो अर्जुन को मार डालने की इच्‍छा रखने लगे। राजन्! भीष्‍म्, द्रोण और कृपाचार्य आदिके मन पर भी दानवों ने अधिकार कर लिया था। अत: पाण्‍डवों के प्रति उनका भी वैसा स्‍नेह नहीं रह गया। दानवों ने रात में कृत्‍या द्वारा अपने यहाँ बुलाकर जो बातें कही थीं, उन्‍हें राजा दुर्योधन ने किसी पर भी प्रकट नहीं किया। वह रात बीतने पर सूर्यपुत्र कर्ण ने आकर राजा दुर्योधन से हाथ जोड़ मुसकराते हुए यह युक्तियुक्‍त वचन कहा- ‘कुरुनन्‍दन! मरा हुआ मनुष्‍य कभी शत्रुओं पर विजय नहीं पाता। जो जीवित रहता है, वह कभी सुख के दिन भी देखता है। मरे हुए को कहाँ सुख और कहाँ विजय। यह समय शोक मनाने, भयभीत होने अथवा मरने का नहीं है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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