महाभारत वन पर्व अध्याय 249 श्लोक 20-38

एकोनपच्‍चाशदधिकद्विशततम (249) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनपच्‍चाशदधिकद्विशततमअध्‍याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद


इसलिये मैं (अवश्‍य) आमरण उपवास करूँगा। अब जीवित नहीं रह सकूंगा। जिसका शत्रुओं ने संकट से उद्धार किया हो, ऐसा कौन विचारशील पुरुष जीवित रहना चाहेगा? शत्रुओं ने मेरी हंसी उड़ायी है। मुझे अपने पौरुष का अभिमान था; किंतु यहाँ मैं कोई पुरुषार्थ न दिखा सका। पराक्रमी पाण्‍डवों ने अवहेलनापूर्ण दृष्टि से मुझे देखा है। (ऐसी दशा में मुझे इस जीवन से विरक्ति हो गयी है)

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार चिन्‍तामग्‍न हुए दुर्योधन ने दु:शासन से कहा- ‘भरतनन्‍दन दु:शासन! मेरी यह बात सुनो- ‘मैं तुम्‍हारा राज्‍यभिषेक करता हूँ। तुम मेरे दिये हुए इस राज्‍य को ग्रहण करो और राजा बनो। कर्ण और शकुनि की सहायता से सुरक्षित एवं धन-धान्‍य से समृद्ध इस पृथ्‍वी का शासन करो। जैसे इन्द्र मरुद्गणों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार तुम अपने अन्‍य भाइयों का विश्‍वासपूर्वक पालन करना। जैसे देवता इन्‍द्र के आश्रित रहकर जीवन निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार तुम्‍हारे बान्‍धवजन भी तुम्‍हारा आश्रय लेकर जीविका चलावें। प्रमाद छोडकर सदा ब्राह्मणों की जीविका की व्यवस्‍था एवं रक्षा करना। बन्‍धुओं तथा सुहृदों को सदैव सहारा देते रहना। जैसे भगवान् विष्णु देवताओं पर कृपादृष्टि रखते हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने कुटुम्‍बीजनों की देखभाल करते रहना और गुरुजनों का सदैव पालन करना। अच्‍छा, अब जाओ और समस्‍त सुहृदों का आनन्‍द बढ़ाते हुए तथा शत्रुओं की सदैव भर्त्‍सना करते हुए अपनी अधिकृत भूमि की रक्षा करो।’

ऐसा कहकर दुर्योधन ने दु:शासन को गले से लगा लिया और गद्गद कण्‍ठ से कहा- ‘जाओ’। दुर्योधन की यह बात सुनकर दु:शासन का गला भर आया। वह अत्‍यन्‍त दु:ख से आतुर हो दीनभाव से हाथ जोड़कर अपने बड़े भाई के चरणों में गिर पड़ा और गद्गद वाणी में व्‍यथित चित्‍त से इस प्रकार बोला- भैया! आप प्रसन्न हों?’ ऐसा कहकर वह धरती पर लोट गया और दु:ख से कातर हो दुर्योधन के दोनों चरणों में अपने नेत्रों का अश्रुजल चढ़ाता हुआ नरश्रेष्‍ठ दु:शासन यों बोला- ‘नहीं, ऐसा नहीं होगा। चाहे सारी पृथ्‍वी फट जाये, आकाश के टुकडे़-टुकड़े हो जायें, सूर्य अपनी प्रभा और चन्‍द्रमा अपनी शीतलता त्‍याग दे, वायु अपनी तीव्र गति छोड़ दे, हिमालय अपना स्‍थान छोड़कर इधर-उधर घूमने लगे, समुद्र का जल सूख जाये तथा अग्नि अपनी उष्‍णता त्‍याग दे; परन्‍तु मैं आपके बिना इस पृथ्‍वी का शासन नहीं करूँगा। राजन्! अब आप प्रसन्‍न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये।’ इस अन्तिम वाक्‍य को दु:शासन ने बार-बार दुहराया और इस प्रकार कहा- ‘भैया आप ही हमारे कुल में सौ वर्षों तक राजा बने रहेंगे।’

जनमेजय! ऐसा कहकर दु:शासन अपने बड़े भाई के माननीय चरणों को पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगा। दु:शासन और दुर्योधन को इस प्रकार दु:खी होते देख कर्ण के मन में बड़ी व्‍यथा हुई। उसने निकट जाकर उन दोनों से कहा- ‘कुरुकुल के श्रेष्‍ठ वीरो! तुम दोनों गंवारों की तरह नासमझी के कारण इतना विषाद क्‍यों कर रहे हो? शोक में डूबे रहने से किसी मनुष्‍य का शोक कभी निवृत्‍त नहीं होता। जब शोक करने वाले का शोक उस पर आये हुए संकट को टाल नहीं सकता है, तब उसमें क्‍या सामर्थ्‍य है? यह तुम दोनों भाई शोक करके प्रत्‍यक्ष देख रहे हो। अत: धैर्य धारण करो। शोक करके तो शत्रुओं का हर्ष ही बढ़ाओगे।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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