महाभारत वन पर्व अध्याय 230 श्लोक 50-59

त्रिंशदधिकद्विशततम (230) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 50-59 का हिन्दी अनुवाद


जो विभिन्न सुगन्‍धों को सूंघता तथा रसों का आस्‍वादन करता है एवं तत्‍काल ही उन्‍मत्त हो उठता है, उस पर प्रभाव डालने वाले ग्रह को ‘राक्षस ग्रह’ जानना चाहिये। भूतल पर जिस मनुष्‍य में दिव्‍य गन्‍धर्वों का आवेश होता है, वह भी शीघ्र ही उन्‍मादग्रस्‍त हो जाता है। इसे ‘गान्‍धर्व ग्रह’ की ही बाधा समझनी चाहिये। जिस पुरुष पर सदा पिशाच चढ़े रहते हैं, वह भी शीघ्र पागल हो जाता है। अत: वह ‘पिशाचग्रह’ की ही बाधा है। कालक्रम से जिस पुरुष में यक्षों का आवेश होता है, उसे भी पागल होते देर नहीं लगती। इसे ‘यक्षग्रह’ की बाधा जाननी चाहिये।

जिस देहधारी मनुष्‍य का चित्त वात, पित्त और कफ नामक दोषों के कुपित होने से अपनी संज्ञा खो बैठता है, वह शीघ्र ही विक्षिप्त हो जाता है। उसकी वैद्यक शास्‍त्र के अनुसार चिकित्‍सा करानी चाहिये। जो घबराहट, भय तथा घोर वस्‍तुओं के दर्शन से ही तत्‍काल पागल हो जाता है, उसके अच्‍छे होने का उपाय केवल उसे सान्‍त्‍वना देना है। कोई ग्रह क्रीड़ा-विनोद की, कोई भोजन की और कोई कामोपभोग की इच्‍छा रखता है, इस प्रकार ग्रहों की प्रकृति तीन प्रकार की है। जब तक सत्तर वर्ष की अवस्‍था पूरी होती है, तब तक ये ग्रह मनुष्‍यों को सताते हैं।

उसके बाद तो सभी देहधारियों को ज्‍वर आदि रोग ही ग्रहों के समान सताने लगते हैं। जिसने अपनी इन्द्रियों को सब ओर से समेट लिया है, जो जितेन्द्रिय, पवित्र, नित्‍य आलस्‍यरहित, आस्तिक तथा श्रद्धालु है, उस पुरुष को ग्रह कभी नहीं छेड़ते हैं-उसे दूर से ही त्‍याग देते हैं।

राजन्! इस प्रकार मैंने मनुष्‍यों को जो ग्रहों की बाधा प्राप्‍त होती है, उसका संक्षेप से वर्णन किया है। जो भगवान महेश्वर के भक्त हैं, उन मनुष्‍यों को भी ये ग्रह नहीं छूते हैं।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमास्‍यापर्व में आंगिरसोपाख्‍यान के प्रसंग में मनुष्‍यों को कष्‍ट देने वाले ग्रहों के वर्णन से सम्‍बन्‍ध रखने वाला दो सौ तीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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