महाभारत वन पर्व अध्याय 229 श्लोक 34-42

एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम (229) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद


सम्‍पूर्ण भूतों में जो चेष्‍टा, प्रभा, शान्ति और बल है, वही कुमार कार्तिकेय के सम्‍मुख शक्तिरूप में उपस्थित है। वह देवताओं की विजयश्री को बढ़ाने वाली है तथा उन स्‍कन्‍द देव के शरीर में सहज (स्‍वाभाविक) कवच का प्रवेश हो गया, जो सदा उनके युद्ध करते समय प्रकट होता था। राजन्! शक्ति, धर्म, बल, तेज, कान्ति, सत्‍य, उन्नति, ब्राह्मण भक्ति, असम्‍मोह (विवेक), भक्तजनों की रक्षा, शत्रुओं का संहार और समस्‍त लोकों का पालन-ये सारे गुण स्‍कन्‍द के साथ ही उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार समस्‍त देवताओं द्वारा सेनापति के पद पर अभिषिक्त होकर विविध आभुषणों से विभूषित, विशुद्ध एवं प्रसन्न हृदय वाले स्‍कन्‍द पूर्ण चन्‍द्रमण्‍डल के समान सुशोभित हुए।

उस समय अत्‍यन्‍त प्रिय लगने वाले वेद-मन्‍त्रों की ध्‍वनि सब ओर गूंज उठी, देवताओं के उत्तम वाद्य भी बजने लगे, देव और गन्‍धर्व गीत गाने लगे और समस्‍त अप्‍सराएं नृत्‍य करने लगीं। ये तथा और भी बहुत से देवगण एवं पिशाच समूह विविध अलंकारों से अलंकृत, हर्षोत्‍फुल्‍ल और संतुष्‍ट हो स्‍कन्‍द को घेरकर खड़े थे। उस समय इन सब से घिरे हुए अग्निनन्‍दन कार्तिकेय देवताओं द्वारा अभिषिक्त हो भाँति-भाँति की क्रीड़ाएं करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। देवताओं ने सेनापति पद पर अभिषिक्त हुए कुमार महासेन को इस प्रकार देखो, मानो सूर्य देव अन्‍धकार का नाश करके उदित हुए हों। तदनन्‍तर सारी देवसेनाएं सहस्रों की संख्‍या में सब दिशाओं से उनके पास आयीं और कहने लगीं- ‘आप ही हमारे पति हैं।' समस्‍त भूतगणों से घिरे हुए भगवान स्‍कन्‍द ने उन देवसेनाओं को अपने समीप पाकर उन्‍हें सान्‍त्‍वना दी और स्‍वयं भी उनके द्वारा पूजित तथा प्रशंसित हुए। उस समय इन्द्र ने स्‍कन्‍द को सेनापति के पद पर अभिषिक्त करने के पश्चात् उस कुमारी देवसेना का स्‍मरण किया, जिसका उन्‍होंने केशी के हाथ से उद्धार किया था। उन्‍होंने सोचा, स्‍वयं ब्रह्माजी ने निश्चय ही कुमार कार्तिकेय को ही उसका पति नियत किया है। यह सोचकर वे देवसेना को वस्‍त्राभूषणों से भूषित करके ले आये।

फिर बलसंहारक इन्‍द्र ने स्‍कन्‍द से कहा- ‘सुरश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारे जन्‍म लेने के पहले से ही ब्रह्मजी ने इस कन्‍या को तुम्‍हारी पत्‍नी नियत किया है, अत: तुम वेदमन्‍त्रों के उच्चारणपूर्वक, इसका विधिवत् पाणिग्रहण करो। अपने कमल की सी कान्ति वाले हाथ से इस देवी का दायां हाथ पकड़ो।' इन्‍द्र के ऐसा कहने पर स्‍कन्‍द ने विधिपूर्वक देवसेना का पाणिग्रहण किया। उस समय मन्‍त्रवेत्ता बृहस्‍पति जी ने वेद-मन्‍त्रों का जप और होम किया। इस प्रकार सब लोग यह जान गये कि देवसेना कुमार कार्तिकेय की पटरानी है। उसी को ब्राह्मण लोग षष्‍ठी, लक्ष्‍मी, आशा, सुखप्रदा, सिनीवाली, कुहू, सद्वृति तथा अपराजिता कहते हैं। जब देवसेना ने स्‍कन्‍द को अपने सनातन पति के रूप में प्राप्‍त कर लिया, तब (शोभास्‍वरूपा) लक्ष्‍मी देवी ने स्‍वयं मूर्तिमती होकर उनका आश्रय लिया। पंचमी तिथि को स्‍कन्‍द देव श्री अर्थात शोभा से सेवित हुए, इसलिये उस तिथि को श्रीपंचमी कहते हैं और षष्‍ठी को कृतार्थ हुए थे, इसलिये षष्‍ठी महातिथि मानी गयी है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में आंगिरसोपाख्‍यान के प्रसंग में स्‍कन्‍दोपाख्‍यान सम्‍बन्‍धी दो सौ उतनीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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