एकोनविंशत्यधिकद्विशतत (219) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशतत अध्याय: श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद
भरतनन्दन! जो समस्त प्राणियों के उदर में स्थित हो उनके खाये हुए पदार्थों को पचाते हैं, वे सम्पूर्ण लोकों में ‘विश्वभुक’ नाम से प्रसिद्ध अग्नि बृहस्पति के (चौथे) पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं। ये विश्वभुक अग्नि ब्रह्मचारी, जितात्मा तथा सदा प्रचुर व्रतों का पालन करने वाले हैं। ब्राह्मण लोग पाकयज्ञों में इन्हीं की पूजा करते हैं। पवित्र गोमती नदी इनकी प्रिय पत्नी हुई। धर्माचरण करने वाले द्विज लोग विश्वभुक अग्नि में ही सम्पूर्ण कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। जो अत्यन्त भयंकर वडवानलरूप से समुद्र का जल सोखते रहते हैं, वे ही शरीर के भीतर ऊर्ध्वगति-‘उदान’ नाम से प्रसिद्ध हैं। ऊपर की ओर गतिशील होने से ही उनका नाम ‘ऊर्ध्वभाक’ है। वे प्राणवायु के आश्रित एवं त्रिकालदर्शी हैं। (उन्हें बृहस्पति का पांचवां पुत्र माना गया है। प्रत्येक गृह्यकर्म में जिस अग्नि के लिये सदा घी की ऐसी धारा दी जाती है, जिसका प्रवाह उत्तराभिमुख हो और इस प्रकार दी हुई वह घृत की आहुति अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि करती है। इसीलिये उस उत्कृष्ट अग्नि का नाम 'स्विष्टकृत' है (उसे बृहस्पति का छठा पुत्र समझना चाहिये। जिस समय अग्निस्वरूप बृहस्पति का क्रोध प्रशान्त प्राणियों पर प्रकट हुआ, उस समय उनके शरीर से जो पसीना निकला, वही उनकी पुत्री के रूप में परिणत हो गया। वह पुत्री अधिक क्रोध वाली थी। वह ‘स्वाहा’ नाम से प्रसिद्ध हुई। वह दारुण एवं क्रूर कन्या सम्पूर्ण भूतों में निवास करती है। स्वर्ग में भी कहीं तुलना न होने के कारण जिसके समान रूपवान् दूसरा कोई नहीं है, उस स्वाहा पुत्र को देवताओं ने ‘काम’ नामक अग्नि कहा है। जो हृदय में क्रोध धारण किये धनुष और माला से विभूषित हो रथ पर बैठकर हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध में शत्रुओं का नाश करते हैं, उसका नाम है ‘अमोघ’ अग्नि। महाभाग! ब्राह्मण लोग त्रिविध उक्थ मन्त्रों द्वारा जिसकी स्तुति करते हैं, जिसने महावाणी (परा) का आविष्कार किया है तथा ज्ञानी पुरुष जिसे आश्वासन देने वाला समझते हैं; उस अग्नि का नाम 'उक्थ' है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान विषयक दौ सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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