षोडशाधिकद्विशततम (216) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: षोडशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद
असंतोष का अन्त नहीं है, अत: संतोष ही परम सुख है। जिन्होंने ज्ञानमार्ग को पार करके परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है, वे कभी शोक में नहीं पड़ते हैं। मन को विषाद की और न जाने दे। विषाद उग्र विष है। वह क्रोध में भरे हुए सर्प की भाँति विवेकहीन अज्ञानी मनुष्य को मार डालता है। पराक्रम का अवसर उपस्थित होने पर जिसे विषाद घेर लेता है, उस तेजोहीन पुरुष का कोई पुरुषार्थ सिद्ध नहीं होता। किये जाने वाले कर्म का फल अवश्य दृष्टिगोचर होता है। केवल खिन्न होकर बैठ रहने से कोई अच्छा परिणाम हाथ नहीं लगता। अत: दु:ख से छूटने के उपाय को अवशय देखे। शोक और विषाद में न पड़कर आवश्यक कार्य आरम्भ कर दे। इस प्रकार प्रयत्न करने से मनुष्य निश्चय ही दु:ख से छूट जाता है और फिर किसी संकट या व्यसन में नहीं फंसता। संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं, ऐसा सोचकर जो बुद्धि से पार होकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गये हैं, वे ज्ञानी महापुरुष परमात्मा का साक्षात्कार करते हुए कभी शोक में नहीं पड़ते। विद्वन्! मैं अन्तकाल की प्रतीक्षा करता हूँ। अत: कभी शोकमग्न नहीं होता। सत्पुरुषों में श्रेष्ठ ब्राह्मण! उपर्युक्त विचारों का मनन करते रहने से मुझे कभी दु:ख या अनुत्साह नहीं होता। ब्राह्मण बोला- धर्मव्याध! आप ज्ञानी और बुद्धिमान हैं। आपकी बुद्धि विशाल है। आप धर्म के तत्व को जानते हैं और ज्ञानानन्द से तृप्त रहते हैं। अत: मैं आपके लिये शोक नहीं करता। अब मैं जाने के लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। आपका कल्याण हो और धर्म सदा आपकी रक्षा करे। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ व्याध! आप धर्माचरण में कभी प्रमाद न करें। मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! कौशिक ब्राह्मण की बात सुनकर धर्मव्याध ने हाथ जोड़कर कहा- 'बहुत अच्छा! अब आप अपने घर को पधारें।' तदनन्तर विप्रवर कौशिक धर्मव्याध की परिक्रमा करके वहाँ से चल दिया। घर जाकर उस ब्राह्मण ने अपने माता-पिता की सब प्रकार की सेवा-शुश्रूषा की और उन बूढ़े माता-पिता ने प्रसन्न होकर उसकी यथायोग्य प्रशंसा की। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ तात युधिष्ठिर! तुमने जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने ये सब बाते कह सुनायीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज