षडधिकद्विशततम (206) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: षडधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन्! ब्राह्मण क्रोध से संतप्त हो अपने तेज से जलता-सा प्रतीत होता था। उसे देखकर उस पतिव्रता देवी ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया। स्त्री बोली- 'विद्वन्! क्षमा करें। मेरे लिये सबसे बड़े देवता पति हैं। वे भूखे और थके हुए घर पर आये थे। (उन्हें छोड़कर कैसे आती?) उन्हीं की सेवा में लग गयी।' तब ब्राह्मण बोला- 'क्या ब्राह्मण बड़े नहीं हैं; तुमने पति को ही सबसे बड़ा बना दिया? ग्रहस्थ धर्म में रहकर भी तुम ब्राह्मणों का अपमान करती हो? अरी! (स्वर्गलोक के स्वामी) इन्द्र भी इन ब्राह्मणों के आगे सिर झुकाते हैं, फिर भूतल के मनुष्यों की तो बात ही क्या है? घमंड में भरी हुई स्त्री! क्या तुम ब्राह्मणों का प्रभाव नहीं जानती? कभी बड़े-बूढ़ों के मुख से भी नहीं सुना? अरी! ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी होते हैं। वे चाहें तो इस पृथ्वी को भी जलाकर भस्म कर सकते हैं।' स्त्री बोली- 'तपोधन! क्रोध न करो। ब्रह्मर्षे! मैं बगुली नहीं हूं, जो तुम्हारी इस क्रोध भरी दृष्टि से जल जाऊंगी। तुम इस तरह कुपित होकर मेरा क्या करोगे? मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती। मनस्वी ब्राह्मण तो देवता के समान होते हैं। निष्पाप ब्राह्मण! तुम मेरे इस अपराध को क्षमा करो। मैं बुद्धिमान ब्राह्मणों के तेज और महत्व को जानती हूँ। ब्राह्मणों के ही क्रोध का फल है कि समुद्र का पानी खारा एवं पीने के अयोग्य बना दिया गया। इसी प्रकार जिनकी तपस्या बहुत बढ़ी-चढ़ी थी और जिनका अन्त:करण परम पवित्र हो चुका था, ऐसे मुनियों ने भी जो क्रोध की आग प्रज्वलित की थी, वह आज भी दण्डकारण्य में बुझ नहीं पा रही है। ब्राह्मणों का तिरस्कार करने से ही क्रूर स्वभाव वाला महान् असुर अत्यन्त दुरात्मा वातापि अगस्त्य के पेट में जाकर पच गया। ब्रह्मन्! महात्मा ब्राह्मणों के प्रभाव को बताने वाले बहुत-से चरित्र सुने जाते हैं। उन महात्माओं का क्रोध और कृपा दोनों ही महान् होते हैं। निष्पाप ब्रह्मन्! मेरे द्वारा जो तुम्हारा अपराध बन गया है, उसे क्षमा करो। विप्रवर! मुझे तो पति की सेवा से जो धर्म प्राप्त होता है, वही अधिक पसंद है। परिपूर्ण देवताओं में भी पति ही मेरे सबसे बड़े देवता हैं। द्विजश्रेष्ठ! मैं साधारण रूप से ही पतिसेवारूप धर्म का पालन करती हूँ। ब्राह्मण देवता! इस पतिसेवा का जैसा फल है, उसे प्रत्यक्ष देख लो। तुमने क्रोध करके जो एक बगुली को जला दिया था, वह बात मुझे मालूम हो गयी। द्विजश्रेष्ठ! मनुष्यों का एक बहुत बड़ा शत्रु है। वह उनके शरीर में ही रहता है, उसका नाम है ‘क्रोध’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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