द्विशततम (200) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्याय: श्लोक 123-129 का हिन्दी अनुवाद
इसी प्रकार नदियों के महान् प्रवाह में स्नान करने वाला पुरुष बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो जाता है। पर्व के अवसर पर दिया हुआ दान दुगुना तथा ऋतु आरम्भ होने के समय दिया हुआ दान दस गुना पुण्यदायक होता है। उत्तरायण या दक्षिणायन आरम्भ होने के दिन, विष्णुयोग (तुला और मेष की संक्रान्ति) में, मिथुन, कन्या, धनु और मीन की संक्रान्तियों में तथा चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के अवसर पर दिया हुआ दान अक्षय बताया गया है। विद्वान् पुरुष प्रारम्भ होने के दिन दिये हुए दान को दस गुना तथा अयन आदि के दिन सौ गुना बताते हैं। इसी प्रकार ग्रहण के दिन दिये हुए दान का फल सहस्र गुना होता है और विषुवयोग में दान करने से मनुष्य उसके अक्षय पुण्य-फल का उपभोग करता है। राजन्! जिसने भूमिदान नहीं किया है, वह परलोक में पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। जिसने सवारी का दान नहीं किया है, वह सवारी चढ़कर नहीं जा सकता। इस जन्म में मनुष्य जिन-जिन पदार्थों का ब्राह्मणों को दान करता है, भावी जन्म में वह उन-उन पदार्थों को उपभोग के लिये पाता है। सुवर्ण अग्नि की प्रथम संतान है। भूमि भगवान विष्णु की पत्नी है तथा गौएं भगवान सूर्य की कन्याएं हैं, अत: जो कोई सुवर्ण, गौ और पृथ्वी का दान करता है, उसके द्वारा तीनों लोकों का दान सम्पन्न हो जाता है। त्रिलोकी में दान से बढ़कर शाश्वत पुण्यदायक कर्म दूसरा पहले कभी नहीं हुआ, अब कैसे हो सकता है? इसीलिये उत्तम बुद्धि वाले पुरुष संसार में दान को सर्वोत्कृष्ट पुण्यकर्म बताते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डयसमास्यापर्व में दान माहात्म्य-विषयक दो सौवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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