अष्टनवत्यधिकशततम (198) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद
तदनन्तर एक दिन और मैं राजा के यहाँ उपस्थित हुआ। पुन: मेरे जाने का उद्देश्य पुष्परथ को प्राप्त करना ही था। उस दिन भी राजा ने बड़ी आवभगत के साथ कहा- ‘भगवन्! यह रथ आपका ही है।' फिर तीसरी बार मैंने उनके यहाँ जाकर स्वस्तिवाचन का कार्य सम्पन्न किया। राजा ने ब्राह्मणों को उस रथ का दर्शन कराते हुए मेरी ओर देखकर कहा- ‘भगवन्! आपने पुष्परथ के लिये अच्छे स्वस्तिवाचन किये। (ऐसा कहकर भी उन्होंने रथ नहीं दिया) इस (छल-युक्त) वचन से वसुमना ही पहले स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरेंगे।' 'यदि आपके साथ हममें से एकमात्र शिबि को ही स्वर्गलोक में जाना हो, तो वहाँ से पहले कौन उतरेगा?' ऐसा प्रश्न होने पर नारद जी ने फिर कहा- ‘शिबि जायेंगे और मैं उतरूगा।' 'इसमें क्या कारण है?' यह पूछे जाने पर देवर्षि नारद ने कहा- ‘मैं राजा शिबि के समान नहीं हूं, क्योंकि एक दिन एक ब्रह्मण ने शिबि से कहा- ‘शिबि! मैं भोजन करना चाहता हूँ। राजा ने पूछा- ‘आपके लिये क्या रसोई बनायी जाये? आज्ञा कीजिये।' तब इनसे ब्रह्मण ने कहा- ‘यह जो तुम्हारा पुत्र बृहद्गर्भ है, इसे मार डालो। फिर उसका दाह-संस्कार करो। तत्पश्चात् अन्न तैयार करो और मेरी प्रतीक्षा करो।' तब राजा ने पुत्र को मारकर उसका दाह-संस्कार कर दिया और फिर विधिपूर्वक अन्न तैयार करके उसे बटलोई में डालकर (और ढक्कन से ढककर) अपने सिर पर रख लिया, फिर वे उस ब्राह्मण की खोज करने लगे। खोज करते समय किसी मनुष्य ने उनके पास आकर कहा- ‘राजन! आपका ब्रह्मण इधर है। यह नगर में प्रवेश करके आपके भवन, कोषागार, शस्त्रागार, अन्त:पुर, अश्वशाला और गजशाला सबमें कुपित होकर आग लगा रहा है।‘ यह सब सुनकर भी राजा शिबि के मुख की कान्ति पूर्ववत् बनी रही। उसमें तनिक भी विकार न आया। वे नगर में घुसकर ब्राह्मण से बोले- ‘भगवन्! आपका भोजन तैयार है।' ब्राह्मण कुछ न बोला। वह आश्चर्य से मुंह नीचा किये देखता रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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