एकनवत्यधिकशततम (191) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-35 का हिन्दी अनुवाद
तात युधिष्ठिर! मैंने तुम्हें जो यह धर्म बताया है, इसका पालन भूतकाल में भी हुआ है और भविष्य काल में भी इसका पालन होना चाहिये। भूत और भविष्य की ऐसी कोई बात नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो; अतः इस समय जो यह क्लेश तुम्हें प्राप्त हुआ है, इसके लिये हृदय में कोई विचार न करो। तात! विद्वान् पुरुष काल से पीड़ित होने पर भी कभी मोह में नहीं पड़ते। महाबाहो! यह काल सम्पूर्ण देवताओं पर भी अपना प्रभाव डालता है। युधिष्ठिर! काल से प्रेरित होकर ही यह सारी प्रजा मोहग्रस्त होती है। अनघ! मैंने तुम्हारे सामने जो कुछ भी कहा है, उसमें तुम्हें किसी प्रकार की शंका नहीं होनी चाहिये। मेरे इस वचन में संदेह करने पर तुम्हारे धर्म का लोप होगा। भरतकुलभूषण! तुम कौरवों के प्रख्यात कुल में उत्पन्न हुए हो; अतः मन, वाणी और क्रिया द्वारा इन सब बातों का पालन करो। युधिष्ठिर ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! आपने मुझे जो उपदेश दिया है, वह मेरे कानों को मधुर एवं मन को प्रिय लगा है। विभो! मैं आपकी आज्ञा का यत्नपूर्वक पालन करूंगा। ब्राह्मणश्रेष्ठ! मेरे मन में लोभ, भय और ईर्ष्या नहीं है। प्रभो! आपने मेरे लिये जो कहा है, इसका अवश्य पालन करूंगा। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! उन परम बुद्धिमान् मार्कण्डेय जी का वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण सहित पांचों पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। साथ ही जो श्रेष्ठ ब्राह्मण वहाँ पधारे थे, उन सबको भी बड़ी प्रसन्नता हुई। बुद्धिमान् मार्कण्डेय जी के मुख से वह मंगलमयी कथा सुनकर पुराणोक्त बातों का ज्ञान हो जाने से सब लोग बड़े ही विस्मित और प्रसन्न हुए।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में युधिष्ठिर के लिये उपदेश विषयक एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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