महाभारत वन पर्व अध्याय 186 श्लोक 13-25

षडशीत्यधिकशततम (186) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: षडशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद


जो सोने के बने हुए सुन्दर सींग, कांस के दुग्धपात्र, द्रव्य तथा ओढ़ने के वस्त्र और दक्षिणा सहित तिल की धेनु का ब्राह्मण को दान करता है, उसके लिये वसुओं के लोक सुलभ हो जाते हैं। जैसे महासागर में डूबते हुए मनुष्य को अनुकूल वायु के सहयोग से चलने वाली नाव बचा लेती है, उसी प्रकार जो अपने कर्मों द्वारा काम, क्रोध आदि दानवों से घिरे हुए घोर अज्ञानान्धकार से परिपूर्ण नरक में गिर रहा है, उसे गोदानजनित पुण्य परलोक में उबार लेता है। जो ब्राह्म विवाह की विधि से दान करने योग्य कन्या का (श्रेष्ठ वर को) दान करता है, ब्राह्मण को भूदान देता है और विधिपूर्वक अन्यान्य वस्तुओं का दान सम्पन्न करता है, वह इन्द्रलोक में जाता है। तार्क्ष्‍य! जो सदाचारी पुरुष संयम-नियम का पालन करते हुए सात वर्षों तक अग्नि में आहुति देता है, वह अपने सत्कर्मों द्वारा अपने साथ ही सात पीढ़ी तक की भावी संतानों को और सात पीढ़ी पूर्व तक के पितामहों को भी पवित्र कर देता है।

तार्क्ष्‍य ने पूछा- मनोहर रूपवाली देवि! मैं पूछता हूँ कि अग्निहोत्र का प्राचीन नियम क्या है? यह बताओ। तुम्हारे उपदेश करने पर आज मुझे यहाँ अग्निहोत्र के प्राचीन नियम का ज्ञान हो जाये।

सरस्वती ने कहा- मुने! जो अपवित्र है, जिसने हाथ-पैर (भी) नहीं धोये हैं, जो वेद के ज्ञान से वंचित है, जिसे वेदार्थ का कोई अनुभव नहीं है, ऐसे पुरुष को अग्नि में आहुति नहीं देनी चाहिये। देवता दूसरों के मनोभाव को जानने की इच्छा रखते हैं, वे पवित्रता चाहते हैं, अतः श्रद्धाहीन मनुष्य के दिये हुए हविष्य को ग्रहण नहीं करते हैं। वेद-मंत्रों का ज्ञान न रखने वाले पुरुष को देवताओं के लिये हविष्य प्रदान करने के कार्य में नियुक्त न करें; क्योंकि वैसा मनुष्य जो हवन करता है, वह व्यर्थ हो जाता है। तार्क्ष्‍य! अश्रोत्रिय पुरुष को वेद में अपूर्व (कुलशील से अपरिचित) कहा गया है।[1] अतः वैसा पुरुष अग्निहोत्र का अधिकारी नहीं है। जो तप से कृश हो सत्य व्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक हवन करते हैं और हवन से बचे हुए अन्न का भोजन करते हैं, वे पवित्र सुगन्ध से भरे हुए गौओं के लोक में जाते हैं और वहाँ परम सत्य परमात्मा का दर्शन करते हैं।

तार्क्ष्‍य ने पूछा- सुन्दर रूप वाली सौभाग्यशालिनी देवि! तुम आत्मस्वरूपा हो तथा परलोक के विषय में एवं कर्म-फल के विचार में प्रविष्ट हुई अत्यन्त उत्कृष्ट बुद्धि हो। प्रज्ञा देवी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं को इन दोनों रूपों में जानकर मैं पूछता हूं, बताओ, वास्तव में तुम क्या हो?

सरस्वती बोली- मुने! मैं [विद्यारूपा सरस्वती हूँ और] श्रेष्ठ ब्राह्मणों के अग्निहोत्र से यहाँ तुम्हारे संशय का निवारण करने के लिये आयी हूँ। (तुम श्रद्धालु हो) तुम्हारा सांनिध्य पाकर ही मैंने यहाँ से पूर्वोक्त सत्य बातें यथार्थ रूप से बतायी हैं; क्योंकि आन्तरिक श्रद्धाभाव में ही मेरी स्थिति है।

तार्क्ष्‍य ने पूछा- सुभगे! तुम्हारी-जैसी दूसरी कोई नारी नहीं है। तुम साक्षात् लक्ष्मी जी की भाँति अत्यन्त प्रकाशमान दिखायी देती हो। तुम्हारा यह परम कान्तिमान् स्वरूप अत्यन्त दिव्य है। साथ ही तुम दिव्य प्रज्ञा भी धारण करती हो (इसका क्या कारण है?)

सरस्वती बोली- नरश्रेष्ठ! विद्वन्! याज्ञिक लोग यज्ञों में जो श्रेष्ठ कार्य करते हैं अथवा श्रेष्ठ वस्तुओं का संकलन करते हैं, उन्हीं से मेरी पुष्टि तथा तृप्ति होती है और विप्रवर! उन्हीं से मैं रूपवती होती हूँ। विद्वन्! उन यज्ञों में जो समिधा-स्रुवा आदि वृक्ष से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं, सुवर्ण आदि तैजस वस्तुएं तथा व्रीहि आदि पार्थिव वस्तुएं उपयोग में लायी जाती हैं, उन्हीं के द्वारा दिव्य रूप तथा प्रज्ञा से सम्पन्न मेरे स्वरूप की पुष्टि होती है, यह बात तुम अच्छी तरह समझ लो।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसे मनुष्य अपरिचित पुरुष का दिया हुआ अन्न नहीं खाता, उसी प्रकार अश्रोत्रिय का दिया हुआ हविष्य देवता नहीं स्वीकार करते हैं।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः