महाभारत वन पर्व अध्याय 181 श्लोक 21-38

एकाशीत्यधिकशततम (181) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकाशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद


नरश्रेष्ठ! विषयों के उपभोग के समय (बुद्धि के द्वारा) इस जीवात्मा का मन किसी एक ही विषय में नियंत्रित कर दिया जाता है। इसीलिये उसके द्वारा एक ही साथ अनेक विषयों का ग्रहण सम्भव नहीं हो पाता है। पुरुषसिंह! वही आत्मा दोनों भौंहों के बीच स्थित होकर उत्तम-अधम बुद्धि को भिन्न-भिन्न द्रव्यों की ओर प्रेरित करता है। बुद्धि की क्रिया के उत्तर-काल में भी विद्वान् पुरुषों को एक अनुभूति दिखायी देती है। नृपश्रेष्ठ! यही क्षेत्रज्ञ आत्मा को प्रकाशित करने वाली विधि है।

युधिष्ठिर ने कहा- सर्प! मुझे मन और बुद्धि का उत्तम लक्षण बतलाओ। अध्यात्म-शास्त्र के विद्वानों के लिये इनको जानना परम कर्तव्य कहा गया है। तात! आत्मा के भोग और मोक्ष का सम्पादन करना ही बुद्धि का प्रयोजन है तथा आत्मा का आश्रय लेकर ही बुद्धि विषयों की ओर जाती है। इस कारण वह आत्मा का अनुसरण करने वाली मानी जाती है। वह भी आत्मा की चेतनशक्ति के सम्बन्ध से ही है तथा बुद्धि के गुणविधान से अर्थात् उसकी ज्ञानशक्ति के प्रभाव से ही मन उस गुण से सम्पन्न होता है यानि इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। अतः बुद्धि तो कार्य के आरम्भ से प्रकट होती है और मन सदैव प्रकट होता है। (कार्य को देखकर ही कारण की सत्ता व्यक्त होती है-यह न्याय है)। तात! मन और बुद्धि की यह विशेषता ही उन दोनों का अन्तर है। तुम भी तो इस विषय के अच्छे ज्ञाता हो, अतः बताओ, तुम्हारी कैसी मान्यता है?

युधिष्ठिर बोले- बुद्धिमानों में श्रेष्ठ! तुम्हारी यह बुद्धि बड़ी उत्तम है। तुम तो जानने योग्य वस्तु को जान चुके हो। फिर मुझसे क्यों पूछते हो? तुम तो सर्वज्ञ तथा स्वर्ग के निवासी थे। तुमने बड़े अद्भुत कर्म किये थे। भला, तुम्हें कैसे मोह हो गया? (अर्थात ब्राह्मणों का अपमान कैसे कर बैठे?) इस बात को लेकर मेरे मन में बड़ा संशय हो रहा है।

सर्प ने कहा- राजन्! यह धन-सम्पत्ति बड़े-बड़े बुद्धिमान ओर शूरवीर मनुष्य को भी मोह में डाल देती है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि सुख-विलास में डूबे हुए सभी लोग मोहित हो जाते हैं। युधिष्ठिर! इसी तरह मैं भी ऐश्वर्य के मोह से मदोन्मत्त हो गया और मुझे उस समय चेत हुआ, जबकि मेरा अधःपतन हो चुका। अतः अब तुम्हें सचेत कर रहा हूँ। परंतप महाराज! आज तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य किया। इस समय तुम-जैसे श्रेष्ठ पुरुष से वार्तालाप करने के कारण मेरा वह अत्यन्त कष्टदायक शाप निवृत्त हो गया। पूर्वकाल में (जब मैं स्वर्ग का राजा था) दिव्य विमान पर चढ़कर आकाश में विचरता रहता था। उस समय अभिमान से मत्त होकर मैं दूसरे किसी को कुछ नहीं समझता था। ब्रह्मर्षि, देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग आदि, जो भी इस त्रिलोकी में निवास करने वाले प्राणी थे, वे सब मुझे कर देते थे।

राजन्! उन दिनों मैं जिस प्राणी की ओर आंख उठाकर देखता था, उसका तेज तत्काल हर लेता था। यह थी मेरी दृष्टि की शक्ति। हजारों ब्रह्मर्षि मेरी पालकी ढोते थे। महाराज! मेरे इसी अत्याचार ने मुझे स्वर्ग की राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट कर दिया। स्वर्ग में मुनिवर अगस्त्य जब मेरी पालकी ढो रहे थे, तब मैंने उन्हें लात मारी, इसलिये उन्होंने मुझे ऐसा कहा कि 'तू निश्चय ही सर्प हो जा'। उनके इतना कहते ही मेरे सभी राजचिह्न लुप्त हो गये। मैं (सर्प होकर) उस उत्तम विमान से नीचे गिरा। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि मैं सर्प होकर नीचे मुंह किये गिर रहा हूं; तब मैंने शाप का अन्त होने के उद्देश्य से उन ब्रह्मर्षि से याचना करते हुए कहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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