महाभारत वन पर्व अध्याय 163 श्लोक 24-42

त्रिषष्‍टयधिकशततम (163) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिषष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 24-42 का हिन्दी अनुवाद


'भारत! जो उत्तम तपस्या से युक्त हैं और पुण्यकर्मों के अनुष्ठान से पवित्र हो गये हैं, वे अज्ञान और मोह से रहित योगसिद्ध महात्मा उस नारायण धाम में जाकर फिर इस संसार में नहीं लौटते हैं। अपितु स्वयंभू एवं सनातन परमात्मा देवदेव विष्णु में लीन हो जाते हैं। महाभाग युधिष्ठिर! यह परमेश्वर का नित्य, अविनाशी और अविकारी स्थान है। तुम यहीं से इसको प्रणाम करो। कुरुनन्दन! सूर्य और चन्द्रमा प्रतिदिन इस निश्चल मेरुगिरि की प्रदक्षिणा करते रहते हैं।

पापशून्य महाराज! सम्पूर्ण नक्षत्र भी गिरिराज मेरु की सर्वतोभावेन परिक्रमा करते हैं। अन्धकार का निवारण करना ही जिनका मुख्य कर्म है, वे भगवान् सूर्य भी सम्पूर्ण ज्योतियों को अपनी ओर खींचते हुए इस मेरुगिरि की प्रदक्षिणा करते हैं। तदनन्तर अस्ताचल को पहुँचकर संध्याकाल की सीमा को लांघकर ये भगवान् सूर्य उत्तर दिशा का आश्रय लेते हैं। पाण्डुनन्दन! मेरु पर्वत का अनुसरण करके उत्तर दिशा की सीमा तक पहुँचकर ये समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले भगवान् सूर्य पुनः पूर्वाभिमुख होकर चलते हैं। उसी प्रकार भगवान् चन्द्रमा भी नक्षत्रों के साथ मेरु पर्वत की परिक्रमा करते हैं और पर्वसंधि के समय विभिन्न मासों के विभाग करते रहते हैं। इस तरह आलस्यरहित हो इस महामेरु का उल्लंघन करके समस्त प्राणियों का पोषण करते हुए वे पुनः मन्दराचल को चले जाते हैं। उसी प्रकार अन्धकारनाशक भगवान् सूर्य अपनी किरणों से सम्पूर्ण जगत् का पालन करते हुए इस बाधारहित मार्ग पर सदा चक्कर लगाते रहते हैं।

शीत की सृष्टि करने की इच्छा से ही सूर्यदेव दक्षिण दिशा का आश्रय लेते हैं, इसलिये समस्त प्राणियों पर शीतल काल का प्रभाव पड़ने लगता है। दक्षिणायन से निवृत्त होने पर वे भगवान् सूर्य स्थावर-जंगम सभी प्राणियों का तेज अपने तेज से हर लेते हैं, यही कारण है कि मनुष्यों को पसीना, थकावट, आलस्य और ग्लानि का अनुभव होता है तथा प्राणी सदा निद्रा का ही बार-बार सेवन करते हैं। इस प्रकार इस अन्तरिक्ष मार्ग को आवृत करके समस्त प्रजा की पुष्टि करते हुए भगवान् सूर्य पुनः वर्षा की सृष्टि करते हैं। महातेजस्वी सूर्यदेव वृष्टि, वायु और ताप द्वारा सुखपूर्वक चराचर जीवों की पुष्टि करते हुए पुनः अपने स्थान पर लौट आते हैं।

कुन्तीनन्दन! इस प्रकार ये भगवान् सूर्य सावधान हो समस्त प्राणियों का आकर्षण और पोषण करते हुए विचरते और कालचक्र का संचालन करते हैं। युधिष्ठिर! यह सूर्यदेव की निरन्तर चलने वाली गति है। सूर्य कभी एक क्षण के लिये भी रुकते नहीं है। वे सम्पूर्ण भूतों के रसमय तेज को ग्रहण करके पुनः उसे वर्षा काल में बरसा देते हैं। भारत! ये भगवान् सविता सम्पूर्ण भूतों की आयु और कर्म का विभाग करते हुए दिन-रात, कला-काष्ठा आदि समय की निरन्तर सृष्टि करते रहते हैं'।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व में मेरुदर्शन विषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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