महाभारत वन पर्व अध्याय 161 श्लोक 22-45

एकषष्‍टयधिकशततम (161) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकषष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 22-45 का हिन्दी अनुवाद


भीम ने यह दूसरा अपराध किया है, यह सुनकर धनाध्यक्ष यक्षराज के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने तुरन्त आज्ञा दी, 'रथ जोतकर ले जाओ'। फिर तो सेवकों ने सुनहरे बादलों की घटा के सदृश विशाल पर्वत-शिखर के समान ऊँचा रथ जोतकर तैयार किया। उसमें सुवर्णमालाओं से विभूषित गन्धर्वदेशीय घोड़े जुते हुए थे। वे सर्वगुणसम्पन्न उत्‍तम अश्व तेजस्वी, बलवान् और अश्वोचित गुणों से युक्त थे। उनकी आंखें निर्मल थीं और उन्हें नाना प्रकार के रत्नमय आभूषण पहनाये गये थे। रथ में जुते हुए वे शोभाशाली अश्व शीघ्रगामी थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वे अभी सब कुछ लांघ जायेंगे। उन अश्वों के हिनहिनाने की आवाज विजय की सूचना देने वाली थी। उनमें से प्रत्येक अश्व स्वयं हिनहिनाकर दूसरे को भी इसके लिये प्रेरणा देता था।

उस विशाल रथ पर आरूढ़ हो महातेजस्वी राजाधिराज भगवान् कुबेर देवताओं और गन्धवों के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए चले। धनाध्यक्ष महामना कुबेर के प्रस्थान करने पर समस्त यक्ष भी उनके साथ चले। उन सब के नेत्र लाल थे। शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी। वे सभी महाकाय और महाबली थे। वे सब तलवार बांधे अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थे। उनकी संख्या एक हजार से कम नहीं थी। वे महान् वेगशाली यक्ष आकाश में उड़ते हुए गन्धमादन पर्वत पर आये, मानो समूचे आकाश-मण्डल को खींचे ले रहे हों। धनाध्यक्ष कुबेर के द्वारा पालित घोड़ों के उस महासमुदाय को तथा यक्ष-राक्षसों से घिरे हुए प्रियदर्शन महामना कुबेर को भी पाण्डवों ने देखा। देखकर उनके अंगों में रोमांच हो आया। इधर कुबेर भी धनुष और तलवार लिये शक्तिशाली महारथी पाण्डुपुत्रों को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। कुबेर देवताओं का कार्य सिद्ध करना चाहते थे, इसलिये मन-ही-मन पाण्डवों से बहुत संतुष्ट हुए। वे कुबेर आदि तीव्र वेगशाली यक्ष-राक्षस पक्षी की तरह उड़कर गन्धमादन पर्वत के शिखर पर आये और पाण्डवों के समीप खड़े हो गये।

जनमेजय! पाण्डवों के प्रति कुबेर का मन प्रसन्न देखकर यक्ष और गन्धर्व निर्विकार-भाव से खड़े रहे। धर्मज्ञ धर्मपुत्र युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव-ये महारथी महामना पाण्डव भगवान् कुबेर को प्रणाम करके अपने को अपराधी-सा मानते हुए उन्हें सब ओर से घेरकर हाथ जोड़े खडे रहे। धनाध्यक्ष कुबेर विश्वकर्मा के बनाये हुए सुन्दर एवं श्रेष्ठ विमान पुष्पक पर विराजमान थे। वह विमान विचित्र निर्माण कौशल की पराकाष्ठा था। विमान पर बैठे हुए कुबेर के पास कील-जैसी कान वाले तीव्र वेगशाली विशालकाय सहस्रों यक्ष-राक्षस भी बैठे थे। जैसे देवता इन्द्र को घेरकर खड़े होते हैं, उसी प्रकार सैकड़ों गन्धर्व और अप्सराओं के गण कुबेर को सब ओर से घेरकर खड़े थे। अपने मस्तक पर सुवर्ण की सुन्दर माला धारण किये और हाथों में खड्ग, पाश तथा धनुष लिये भीमसेन धनाध्यक्ष कुबेर की ओर देख रहे थे। भीमसेन को राक्षसों ने बहुत घायल कर दिया था। उस अवस्था में भी कुबेर को देखकर उनके मन में तनिक भी ग्लानि नहीं होती थी। भीमसेन हाथों में तीखे बाण लिये उस समय भी युद्ध के लिये तैयार खड़े थे। यह देख नरवाहन कुबेर ने धर्मपुत्र युधिष्ठिर से कहा- 'कुन्तीनन्दन! तुम सदा सब प्राणियों के हित में तत्पर रहते हो, यह बात सब प्राणी जानते हैं। अतः तुम अपने भाइयों के साथ इस शैल-शिखर पर निर्भय होकर रहो। पाण्डुनन्दन! तुम्हें भीमसेन पर क्रोध नहीं करना चाहिये। ये यक्ष और राक्षस काल के द्वारा पहले ही मारे गये थे। तुम्हारे भाई तो इसमें निमित्तमात्र हैं। भीमसेन ने जो यह दुःसाहस का कार्य किया है, इसके लिये तुम्हें लज्जित नहीं होना चाहिये; क्योंकि यक्ष तथा राक्षसों का यह विनाश देवताओं को पहले ही प्रत्यक्ष हो चुका था।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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