महाभारत वन पर्व अध्याय 157 श्लोक 23-43

सप्‍तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्‍याय: वन पर्व (जटासुरवध पर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 23-43 का हिन्दी अनुवाद


खोटी बुद्धि वाले राक्षस! तू हमारा अन्न खाकर हमें ही हर ले जाने की इच्छा कैसे करता है? इस प्रकार तो अब तक तूने ब्राह्मणरूप से जो आचार दिखाया था, वह सब व्यर्थ ही था। तेरा बढ़ना या वृद्ध होना भी व्यर्थ ही है। तेरी बुद्धि भी व्यर्थ है। ऐसी दशा में तू व्यर्थ मृत्यु का ही अधिकारी है और आज व्यर्थ ही तुम्हारे प्राण नष्ट हो जायेंगे। यदि तेरी बुद्धि दुष्टता पर ही उतर आयी है और तू सम्पूर्ण धर्मों को भी छोड़ बैठा है, तो हमें हमारे अस्त्र देकर युद्ध कर तथा उसमें विजयी होने पर द्रौपदी को ले जा। यदि तू अज्ञानवश यह विश्वासघात या अपहरण कर्म करेगा, तो संसार में तुझे केवल अधर्म और अकीर्ति ही प्राप्त होगी। निशाचर! आज तूने इस मानव-जाति की स्त्री का स्पर्श करके जो पाप किया है, यह भयंकर विष है, जिसे तूने घड़े में घोलकर पी लिया है।' इतना कहकर युधिष्ठिर उसके लिये बहुत भारी हो गये। भार से उसका शरीर दबने लगा, इसलिये अब वह पहले की तरह शीघ्रतापूर्वक न चल सका। तब युधिष्ठिर ने नकुल और द्रौपदी से कहा- 'तुम लोग इस मूढ़ राक्षस से डरना मत। मैंने इसकी गति कुण्डित कर दी है। वायुपुत्र महाबाहु भीमसेन यहां से अधिक दूर नहीं होंगे। इस आगामी मुहूर्त के आते ही इस राक्षस के प्राण नहीं रहेंगे।'

इधर सहदेव ने उस मूढ़ राक्षस की ओर देखते हुए कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरसे कहा- 'राजन्! क्षत्रिय के लिये इससे अधिक सत्कर्म क्या होगा कि वह युद्ध में शत्रु को ही जीत ले। राजन्! इस प्रकार यह हमें अथवा हम इसे युद्ध करते हुए मार डालें। परंतप महाबाहु नरेश! यह क्षत्रिय धर्म के अनुकूल देशकाल प्राप्त हुआ है। यह समय यथार्थ पराक्रम प्रकट करने के लिये है। भारत! हम विजयी हों या मारे जायें, सभी दशाओं में उत्‍तम गति प्राप्त कर सकते हैं। यदि इस राक्षस के जीते जी सूर्य डूब गये, तो मैं फिर कभी अपने को क्षत्रिय नहीं कहूंगा। अरे ओ निशाचर! खड़ा रह, मैं पाण्डुकुमार सहदेव हूं, या तो तू मुझे मारकर द्रौपदी को ले जा या स्वयं मेरे हाथों मारा जाकर आज यहीं सदा के लिये सो जा।'

माद्रीनन्दन सहदेव जब ऐसी बात कह रहे थे, उसी समय अकस्मात् गदा हाथ में लिये हुये भीमसेन दिखायी दिये, मानो वज्रधारी इन्द्र आ पहुँचे हों। उन्होंने वहाँ (राक्षस के अधिकार में पड़े हुए) अपने दोनों भाइयों तथा यशस्विनी द्रौपदी को देखा। उस समय सहदेव धरती पर खड़े होकर राक्षस पर आक्षेप कर रहे थे और वह मूढ़ राक्षस मार्ग में भ्रष्ट होकर वहीं चक्कर काट रहा था। काल से उसकी बुद्धि मारी गयी थी। दैव ने ही उसे वहाँ रोक रखा था।

भाइयों और द्रौपदी का अपहरण होता देख महाबली भीमसेन कुपित हो उठे ओर जटासुर से बोले- 'ओ पापी! पहले जब तू शस्त्रों की परीक्षा कर रहा था, उसी समय मैंने तुझे पहचान लिया था। तुझ पर मेरा विश्वास नहीं रह गया था तो भी तू ब्राह्मण के रूप में अपने असली स्वरूपको छिपाये हुए था और हम लोग से कोई अप्रिय बात नहीं कहता था। इसीलिये मैंने तुम्हें तत्काल नहीं मार डाला। तू हमारे प्रिय कार्यों में मन लगाता था। जो हमें प्रिय न लगे, ऐसा काम नहीं करता था। ब्राह्मण अतिथि के रूप में आया था और कभी कोई अपराध नहीं किया था। ऐसी दशा में मैं तुझे कैसे मारता? जो राक्षस को राक्षस जानते हुए भी बिना किसी अपराध के उसका वध करता है, वह नरक में जाता है। अभी तेरा समय पूरा नहीं हुआ था, इसलिये भी आज से पहले तेरा वध नहीं किया जा सकता था।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः