महाभारत वन पर्व अध्याय 135 श्लोक 19-36

पंचत्रिंशदधिकशततम (135) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद


यवक्रीत ने कहा- देववृन्दपूजित महेन्द्र! मैं यह उच्च कोटी की तपस्या इसलिये करता हूँ कि द्विजातियों को बिना पढ़े ही सब वेदों का ज्ञान हो जाये। पाकशासन! मेरा यह आयोजन स्वाध्याय के लिये ही है। कौशिक! मैं तपस्या द्वारा सब बातों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। प्रभो! गुरु के मुख से दीर्घ काल के पश्चात वेदों का ज्ञान हो सकता है। अत: मेरा यह महान प्रयत्न शीध्र ही सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये है।

इन्द्र बोले- विप्रर्षे! तुम जिस राह से जाना चाहते हो, वह अध्ययन का मार्ग नहीं है। स्वाध्याय मार्ग को नष्‍ट करने से तुम्हें क्या लाभ होगा। अत: जाओ गुरु के मुख से ही अध्ययन करो।

लोमश जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर इन्द्र चले गये; तब अत्यन्त पराक्रमी यवक्रीत ने भी पुन: तपस्या के लिये ही घोर प्रयास आरम्भ कर दिया। राजन! उसने घोर तपस्या द्वारा महान तप का संचय करते हुए देवराज इन्द्र को अत्यन्त संतप्त कर दिया; यह बात हमारे सुनने में आयी है। महामुनि यवक्रीत को इस प्राकर तपस्या करते देख इन्द्र ने उनके पास जाकर पुन: मना किया और कहा- ‘मुने! तुमने ऐसे कार्य का आरम्भ किया है, जिसकी सिद्धि होनी असम्भव है। तुम्‍हारा यह (द्विजमात्र के लिये बिना पढ़े वेद का ज्ञान होने का) आयोजन बुद्धिसंगत नहीं है; किन्तु केवल तुमको और तुम्हारे पिता को ही वेदों का ज्ञान होगा’।

यवक्रीत ने कहा- देवराज! यदि इस प्रकार आप मेरे इष्‍ट मनोरथ की सिद्धि नहीं करते हैं, तो मैं और कठोर नियम लेकर अत्यन्त भयंकर तपस्या में लग जाऊँगा। देवराज इन्द्र! यदि आप यहाँ मेरी सारी मनोवांछित कामना पूरी नहीं करते हैं, तो मैं प्रज्ज्वलित अग्नि में अपने एक-एक अंग को होम दूंगा। इस बात को आप अच्छी तरह जानते हो।

लोमश जी कहते है- युधिष्ठिर! उन महामुनि के उस निश्चय को जानकर बुद्धिमान इन्द्र ने उन्हें रोकने के लिये बुद्धिपूर्वक कुछ विचार किया और ऐसे तपस्वी ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया, जिसकी उम्र कई सौ वर्षों की थी तथा जो यक्ष्‍मा का रोगी और दुर्बल दिखायी देता था। गंगा के जिस तीर्थ में यवक्रीत मुनि स्नान आदि किया करते थे, उसी में वे ब्राह्मण देवता बालू द्वारा पुल बनाने लगे। द्विजश्रेष्ठ यवक्रीत ने जब इन्द्र का कहना नहीं माना, तब वे बालू से गंगाजी को भरने लगे। वे निरन्तर एक-एक मुठ्ठी बालू गंगाजी में छोड़ते थे और इस प्रकार उन्होंने यवक्रीत को दिखाकर पुल बांधने का कार्य आरम्भ कर दिया। मुनिप्रवर यवक्रीत ने देखा, ब्राह्मण देवता पुल बांधने के लिये बड़े यत्नशील हैं, तब उन्होंने हंसते हुए इस प्रकार कहा- ‘ब्रह्मन! यह क्या है? आप क्या करना चाहते हैं? आप प्रयत्न तो महान कर रहे हैं, परंतु यह कार्य व्यर्थ है’।

इन्द्र बोले- तात! मैं गंगाजी पर पुल बाँधूँगा। इससे पार जाने के लिये सुखद मार्ग बन जायेगा; क्योंकि पुल के न होने से इधर आने वाले लोगों को बार-बार तैरने का कष्‍ट उठाना पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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