महाभारत वन पर्व अध्याय 134 श्लोक 11-16

चतुस्‍त्रिं‍शदधि‍कशततम (134) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुस्‍त्रिं‍शदधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 11-16 का हिन्दी अनुवाद


अष्टावक्र बोले- बाह्मणों के लिये आश्रम[1] चार हैं। वर्ण[2] भी चार ही हैं, जो इस यज्ञ का भार वहन करते हैं। मुख्य दिशाएं[3] भी चार ही हैं। वर्ण[4] भी चार ही हैं तथा गो अर्थात वाणी भी सदा चार ही चरणों[5] से युक्त बतयी गयी है।

बन्दी ने कहा- यज्ञ की अग्नि गार्हपत्य, दक्षि‍णाग्नि, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्य के भेद से पांच प्रकार की कही गयी है। पंक्ति[6] छन्द भी पांच पादों से ही बनता है। यज्ञ भी पांच ही हैं- देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्‍ययज्ञ। इस प्रकार इन्द्रियों की संख्या भी पांच ही हैं[7]वेद में पांच वेणी वाली (पंचचूड़ा[8]) अप्सरा का वर्णन देखा गया है तथा लोक में पांच[9] नदियों से विशिष्‍ट पुण्यमय पंचनद प्रदेश विख्यात है।

अष्टावक्र बोले- कुछ विद्वानों का मत है कि अग्नि की स्थापना के समय दक्षिण में छ: गौ ही देनी चाहिये। ये छ: ऋतुएं ही संवत्सररूप कालचक्र की सिद्धि करती हैं। मन सहित ज्ञानेन्द्रियां भी छ: ही हैं। कृत्तिकाओं की संख्या छ: ही है तथा सम्पूर्ण वेदों में साद्यस्क नामक यज्ञ भी छ: ही देखे गये हैं।

बन्दी ने कहा- ग्राम्य पशु सात हैं (जिनके नाम इस प्रकार हैं)- गाय, भैंस, बकरी, भेंड़, घोड़ा, कुत्‍ता और गदहा। जंगली पशु भी सात हैं (यथा सिंह, बाघ, भेड़ि‍या, हाथी, वानर, भालू और मृग[10])। गायत्री, उष्‍णि‍क, अनुष्‍टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्‍टुप और जगती- ये सात ही छन्द एक-एक यज्ञ का निर्वाह करते हैं। सप्तर्षि नाम से प्रसिद्ध ऋषि‍यों[11] की संख्या भी सात ही है (यथा- मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, अंगिरा और वसिष्ठ), पूजन के संक्षि‍प्त उपचार भी सात हैं (यथा- गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन और ताम्बूल) तथा वीणा के भी सात ही तार विख्यात हैं।

अष्टावक्र बोले- तराजू में लगी हुई सन की डोरियां भी आठ ही होती हैं, जो सैकड़ों का मान (तौल) करती हैं। सिंह को भी मार गि‍राने वाले शरभ के आठ ही पैर होते हैं। देवताओं में वसुओं[12] की संख्‍या भी आठ ही सुनी गयी है और सम्‍पूर्ण यज्ञों में आठ कोण के ही यूप का निर्माण कि‍या जाता है।

बन्‍दी ने कहा- पि‍तृयज्ञ में समि‍धा देकर अग्‍नि‍ को उद्दीप्‍त करने के लि‍ये जो मन्‍त्र पढ़े जाते हैं, उन्‍हें सामि‍धेनी ऋचा कहते हैं, उनकी संख्या नौ ही बतायी गयी है, इसमें प्रकृति‍, पुरुष, महत्तत्त्व, अहंकार तथा पंचतन्‍मात्रा- इन नौ पदार्थों का संयोग कारण है, ऐसा वि‍ज्ञ पुरुषों का कथन है। बृहती-छन्‍द के प्रत्‍येक चरण में नौ अक्षर बताये गये हैं और एक से लेकर नौ अंकों का योग सदा गणना के उपयोग में आता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास
  2. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
  3. पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर
  4. ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और हल्‌
  5. परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी-ये वाणी के चार पैर हैं
  6. आठ-आठ अक्षर के पाँच पादों से पंक्तिछंद की सिद्धि होती है।
  7. त्वचा, श्रोत्र, नेत्र, रसना और नासिका- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
  8. पंचचूड़ा अप्सरा का उल्लेख महाभारत के अनुशासनपर्व में 38वें अध्याय में आया है।
  9. विपाशा (व्यास), इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम), चंद्रभागा (चिनाब) और शतद्र (शतलज)-ये ही पंचनद प्रदेश की पाँच नदियाँ हैं।
  10. हिरन, सूकर, खरगोश, गीदड़ आदि जंतुओं का ग्रहण मृग नाम से ही हो जाता है।
  11. सप्तर्षि ये हैं- मरीचिरंगिराश्चात्रि पुलस्त्य: पुलह: क्रतु:। वसिष्ठ इति सप्तैते मांसाअ निर्मिता हि ते॥ (महाभारत शांतिपर्व 340, 69); भगवान ने स्वयं ब्रह्मा से कहा है कि- मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ-ये सातों महर्षि तुम्हारे (ब्रह्माजी के) द्वारा ही अपने मन से रचे हुए हैं।
  12. थरो ध्रुवश्व सोमश्व अहश्चैवानिलोनल:। प्रत्यूषश्च प्रभासश्व त्रसवोष्टौ प्रकीर्तिता:॥ (महाभारत आदिपर्व 66, 18); घर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास-ये आठ वसु कहे गए हैं।

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