एकोनत्रिंशदधिकशततम (129) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 11-22 का हिन्दी अनुवाद
राजन! राजा भरत ने धर्मपूर्वक वसुधा का राज्य पाकर यहीं बहुत-से यज्ञ किये थे और यहीं अश्वमेध यज्ञ के उद्देश्य से उन्होंने अनेक बार कृष्णमृग के समान रंग वाले यज्ञ-सम्बन्धी श्यामकर्ण अश्व को भूतल पर भ्रमण के लिये छोड़ा था। नरश्रेष्ठ! इसी तीर्थ में ऋषिप्रवर संवर्त से सुरक्षित हो महाराज मरुत्त ने उत्तम यज्ञ का अनुष्ठान किया। राजेन्द्र! यहाँ स्नान करके शुद्ध हुआ मनुष्य सम्पूर्ण लोकों को प्रत्यक्ष देखता है और पाप से मुक्त हो पवित्र हो जाता है; अत: तुम इसमें भी स्नान करो। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर भाइयों सहित स्नान करके महर्षियों द्वारा प्रशंसित हो पण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने लोमश जी से इस प्रकार कहा- ‘मुनीश्वर! तपोबल से सम्पन्न होने के कारण वस्तुत: आप ही यथार्थ पराक्रमी हैं। आपकी कृपा से आज मैं इस प्लक्षावतरण के जल में स्थित होकर सब लोकों को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। यहीं से मुझे पाण्डवश्रेष्ठ श्वेतवाहन अर्जुन भी दिखायी देते हैं। लोमश जी कहते हैं- महाबाहो! तुम ठीक कहते हो। यहाँ स्नान करके तप:शक्तिसम्पन्न श्रेष्ठ ऋषिगण इसी प्रकार चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों का दर्शन करते हैं। अब इस पुण्यललिता सरस्वती का दर्शन करो, जो एकमात्र पुण्य का ही आश्रय लेने वाले पुरुषों से घिरी हुई है। नरश्रेष्ठ इसमें स्नान करने से तुम्हारे सारे पाप धुल जायेंगे। कुन्तीनन्दन! यहाँ अनेक देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षियों ने सारस्वत यज्ञों का अनुष्ठान किया था। यह सब ओर पांच योजन फैली हुई प्रजापति की यज्ञवेदी है। यही यज्ञपरायण महात्मा राजा कुरु का क्षेत्र है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा विषयक एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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